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गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

सास धर्म... लघुकथा

सास धर्म 


एक वर्ष के दुधमुंहे बालक की नजर एकाएक जब अपनी दादी की छाती पर पड़ी तो दूध पीने चाहत में व‍ह उनकी छाती को बार - बार स्पर्श करने लगा। यह देख दादी ने  कहा, "एनकर चाचा - बाप त ऐसन नाय रहेन,लागत आ ननिअउरे
पड़ि गएन. "( इसके चाचा और पिता ऐसे नहीं थे, लगता है ननिहाल में किसी को पड़ गया है।)
पालने में ही अपने साल भर के नन्हें- मुन्हें पोते के चरित्र का विश्लेषण करते-करते अधरों पर कुटिल मुस्कान लिए सास ने एक बार फिर से बहू को सताने का अपना सास धर्म निभा दिया था । आँखों में अश्रु लिए अपने साड़ी के कोरों को मसलती हुई असहाय बहू मन मसोस कर पति और ससुर से शिकायत के डर से चुप चाप रसोई में चल दी.

शनिवार, 21 दिसंबर 2019

ये कैसा मापदंड



ये कैसा मापदंड.....
ये कैसा मापदंड...



ये कैसा मापदंड..

नये साल की शुभकामनाएँ देने के लिए ऊर्जा ने जब अपनी सास को फोन किया तो बातों- बातों में उसने महसूस किया कि उनका मूड कुछ उखड़ा उखड़ा - सा है।
मिसाल तो वे अपनी बेटी प्रतिमा की दे रही थी पर उनका इशारा ऊर्जा की तरफ ही था। उलाहना भरे स्वर में वे प्रतिमा की शिकायत करने लगी।
कहने लगी - "प्रतिमा ने भी अभी तीन बजे दोपहर को फोन करके मुझे नए साल की बधाई दी।अपनी बातों पर थोड़ा अधिक जोर देते हुए वे कहने लगी- "मैंने कहा कि नए साल की बधाई देने के लिए, तुम्हारी बुआ का फोन सुबह छह बजे ही आ गया, जबकि वो ननद है मेरी, और तुम, बेटी होकर भी मुझे इतनी देर से फोन कर रही हो। "
तो प्रतिमा कहने लगी - " नहीं... मम्मी , ऐसी कोई बात नहीं है। सुबह से काम में इतनी व्यस्त थी कि समय ही नहीं निकाल पाई। अब जाकर काम से फुर्सत पाई हूँ तो सबसे पहले आप को ही फ़ोन लगाया है। " बेचारी प्रतिमा, उसकी विवशता मैं समझ सकती हूँ - बेटी का पक्ष लेते हुए उन्होंने ऊर्जा की गलती की तरफ इशारा कर दिया. बेचारी ऊर्जा कुछ बोल न सकी और चुपचाप अपनी सास की उलाहना सुनती रही.
फोन रखने के पश्चात ऊर्जा सोचने लगी कि सासू माँ को तीज- त्योहार, होली- दिवाली आदि मौकों पर कोई फोन न करे तो उन्हें बहुत बुरा लगता है। मैं भी तो उनकी तरह ही घर की बड़ी बहू हूँ। उन्होंने कहाँ अपनी बेटी को सिखा दिया कि वह भी बड़े भाई - भाभी को तीज - त्योहार, मौके - धौके पर फोन कर लिया करे। वह तो कभी नहीं करती। हर बार मुझे ही करना ही पड़ता है और किसी मौके पर यदि बुआ फोन न करे तो उन्हें बुरा लग जाता है।
वाह रे! कैसे अजीब मापदंड है ये!!! अपने लिए अलग और दूसरों के लिए अलग!!!

रविवार, 15 दिसंबर 2019

रिश्तों का मोल



 एक ओर सर्दी और ज़ुकाम ;ऊपर से शरीर का तेज ताप । लगातार दो दिनों से रीमा का बुखार चढ़ - उतर रहा था।इसलिए उसने सोचा कि वह अपनी छोटी बहन डॉक्टर अभिधा से दवा ले लेगी और इसी बहाने उससे मुलाकात भी हो जाएगी ।साथ ही साथ व‍ह अपनी छोटी बहन के साथ कुछ अच्छे सुखद क्षणों को साझा भी कर लेगी। एक पंथ दो काज हो जाएंगे। वैसे भी अभिधा की व्यस्तता के कारण रीमा को उससे मिले तकरीबन पांच छः महीनों से ऊपर हो गया था। उसका क्लिनिक रीमा के घर से कुछ तीन चार किलोमीटर की दूरी पर ही था। इसलिए रीमा अकेली ही ऑटोरिक्शा लेकर उसके क्लिनिक पहुँच गई ।

जब व‍ह उसके क्लिनिक पहुँची तो कम्पाउन्डर ने उसे बताया कि डॉक्टर के कैबिन में पहले से ही एक स्किन पेशेंट मौजूद है । इसलिए व‍ह नहीं जा सकती। रीमा ने सोचा कि थोड़ी देर में शायद उस स्किन पेशेंट से फुर्सत पाकर व‍ह उसे स्वयं अपनी कैबिन में बुला लेगी या खुद ही उससे मिलने कैबिन से बाहर चली आएगी। परंतु जैसा व‍ह सोच रही थी वैसा कुछ नहीं हुआ।
 रीमा का बदन बुखार से खूब तप रहा था। इसी कारण उसे बहुत कमज़ोरी भी महसूस हो रही थी। उससे ठीक से बैठा नहीं जा रहा था। फिर भी वह न जाने क्या सोच कर काफी देर तक बैठी रही । उसने सिर उठाकर दीवार की ओर देखा ।घड़ी की सुई नौ बजा रही थी । एक घंटे से ऊपर हो गए थे। रीमा से अब और बैठा नहीं जा रहा था।इसलिए उसने कम्पाउन्डर से कहलवा भेजा कि जाओ कह दो दीदी को तेज बुखार है सर्दी खांसी भी है तो उसकी दवा दे दे। उसने सोचा शायद यह सुनकर ही वह बाहर आ जाए कि दीदी की तबीयत खराब है।
 थोड़ी देर में कम्पाउन्डर भीतर से दवा लेकर लौटी और खुराक समझाते हुए रीमा के हाथ में दवा की पुड़िया थमा दी। रीमा को य़ह बात भीतर तक झकझोर गई कि जिस बहन को वह हमेशा अपने सीने से लगाए रहती थी। आज उसका व्यवहार कितना बदल गया है। तीन चार महीनों से न कोई बात ,न कोई फोन। यही सोचते - सोचते दुखी मन से व‍ह घर लौट आई। उसके मन में तसल्ली थी कि फोन करके अभिधा उसका कुशलक्षेम जरूर पूछेगी। आखिर वह एक डॉक्टर है और ऊपर से उसकी बहन।
 कुछ दिनों में दवाइयों की खुराक से रीमा की तबीयत तो ठीक हो गई परंतु न अभिधा का फोन आया और न अभिधा ही आई । रीमा के हृदय को गहरी चोट पहुँची। यह बात उसने पहले भी कई बार महसूस की थी कि कई दिनों से अभिधा उससे दूरी बना रही थी ।जब- जब रीमा ने उसे फ़ोन कर उससे बात करने की कोशिश की ,तब -तब उसके कंपाउंडर ने ही फोन उठाया और व्यस्तता का बहाना बनाकर फ़ोन काट दिया। उसके मन के किसी कोने में यह बात घर कर गई कि गरीबी सबसे बड़ी बीमारी है। इस बीमारी का कोई इलाज नहीं।जब तक य़ह बीमारी साथ रहती है तब तक अपने भी अपनों को नहीं पहचानते।
 औऱ अभिधा क़े इस व्यवहार ने भी अब इस बात की पुष्टि कर दी थी कि पैसों के आगे रिश्ते का कोई मोल नहीं होता।  

रविवार, 8 दिसंबर 2019

बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना.. लघुकथा





बच्चों के स्कूल की छुट्टियां अभी नहीं हुई थी.पतिदेव को अपने खास दोस्त के रिश्तेदार की शादी में जाना था.यूँ कह लीजिए बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना. सभी बस छुट्टियों का इंतजार कर रहे थे. परंतु शादी एक सप्ताह पहले की तय थी. पति जानता था कि घर में पता चला तो पत्नी जाने नहीं देगी.उन्होंने युक्ति लगाई. उस दिन आधी रात को शराब के नशे में चूर हो कर घर आए ताकि शराब पीकर आने पर पत्नी से झगड़ा हो और  युक्ति काम कर गई. घर में  झगड़ा हुआ पति देव अपना बैग पैक करके घर से निकल गए.

सुधा सिंह ✍️

(# 100 शब्दों की कहानी)


बुधवार, 30 अक्टूबर 2019

गुनगुनी धूप... कहानी



Gunguni dhup
गुनगुनी धूप 

अपने स्कूल की कबड्डी टीम की कैप्टन, बैडमिंटन में माहिर, साईंस एक्सिबिशन और कक्षा में सदा प्रथम आने वाली शालू बचपन से ही पढ़ाई में बहुत होशियार और मेधा की धनी थी। स्टेज पर जाती तो कमाल कर देती। नाटक के हर संवाद उसे जुबानी याद होते और सब उसकी प्रतिभा का लोहा मानते। उसके घर का एक कोना उसके सर्टिफिकेट , मेडल्‍स और शील्ड के लिया निर्धारित था।शालू के माता पिता ओपन - डे पर जब भी स्कूल जाते बोर्ड पर उसका नाम देखकर फूले न समाते।

कक्षा के बाकी बच्चों के अभिभावक जब उनके सामने ही शालू की ओर इशारा करते हुए अपने बच्चों को डांँटते, " उसके कैसे  इतने अच्छे नंबर आए, वो तो कोई ट्यूशन भी नहीं जाती, कुछ सीख उससे।"तब अपनी होनहार बेटी की तारीफें सुन कर उनकी छाती और चौड़ी हो जाती ।

शालू शिक्षकों की लाडली तो थी ही ।उसके अच्छे स्वभाव के कारण कक्षा के सब बच्चे भी उससे बहुत प्यार करते थे। दसवीं और बारहवीं दोनों की बोर्ड परीक्षाओं में लगातार जब उसने बिना किसी बाहरी सहायता अथवा ट्यूशन के 94 प्रतिशत अंक हासिल किए तो उसे और उसके माता - पिता को बधाई देने के लिए हर जगह से फोन आने लगे। अपनी खुशी जाहिर करने के लिए उन्होंने सबमें मिठाइयाँ बांटी। उन्हें लगने लगा था कि शालू का डॉक्टर बनने का बचपन का सपना अब जरूर पूरा हो जाएगा परंतु ईश्वर को शायद कुछ और ही मंजूर था।

निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से होने के कारण  मेडिकल की प्रवेश परीक्षा नीट के लिए भी उसके माता- पिता उसकी ट्यूशन नहीं लगवा सके थे। फिर भी दिन रात कठिन परिश्रम करके प्रवेश परीक्षा में उसने काफी अच्छे अंक हासिल किए। जो आरक्षित वर्ग के  विद्यार्थियों लिए निर्धारित अंकों से कहीं ज्यादा थे।

अनारक्षित सवर्ण वर्ग व सामान्य श्रेणी के विद्यार्थियों के लिए निर्धारित अंकों से मात्र दस अंक कम होने पर भी उसे किसी मेडिकल कॉलेज में दाखिला नहीं मिला।

लगातार महंगी होती पढ़ाई और आर्थिक पक्ष कमजोर होने के कारण शालू के माता - पिता अपनी बेटी के लिए किसी भी निजी मेडिकल कॉलेज में लाखों की रूपयों की सीट खरीदने में असमर्थ  रहे। तकरीबन हर मेडिकल कॉलेज में उसे यही सुनने को मिलता कि "इतने कम अंकों में तुम्हें महाराष्ट्र में तो किसी मेडिकल कॉलेज में दाखिला नहीं मिलेगा। जाओ अगले साल इससे अच्छे अंक लाना तब देखेंगे। "

आज प्रतिभा ने आरक्षण के आगे घुटने टेक दिए थे।जिसने भी सुना उसने दाँतों तले उंगली दबा ली कि मात्र दस अंकों के कारण उसका सपना चूर - चूर हो गया। शालू अब धीरे - धीरे निराश होने लगी थी।परंतु उसके हौसले टूटे नहीं थे। 

पैसों के आगे प्रतिभा कोई मोल नहीं। वह जानती थी कि माता - पिता उसकी नीट की ट्यूशन फीस नहीं भर सकते इसलिए वह अगले साल तक नहीं रुक सकती थी।

शालू ने माता- पिता से सलाह लेकर बिना एक भी वर्ष गंँवाए विज्ञान से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। उसमें भी अव्वल दर्जे से पास हुई।

शालू का बचपन का स्वप्न आरक्षण की बलि चढ़ चुका था।पर जीवन की खुशनुमा गुनगुनी धूप की चाह रखने वाली शालू ने अब एक नया सपना देखा है। अब वह सिविल सर्विसेस में जाना चाहती है और जिसके लिए वह दिन- रात मेहनत कर रही है।उसके हौंसले अब भी बरकरार है परंतु उसे वही डर फिर से सता रहा है कि दोबारा उसके और उसको सपनों के बीच आरक्षण दीवार बनकर न खड़ी हो जाए।

(मित्रों, यह कहानी कोरी कल्पना नहीं अपितु हकीकत का ताना बाना है)


दोषी कौन ?.... लघुकथा

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                                           दोषी कौन



      समीर और उसकी पत्नी स्वाति प्रतिदिन होनेवाली कलह और झिकझिक के कारण घर से अलग होकर एक किराए के मकान में रहने लगे थे। परंतु शर्मा जी अपने बेटे और बहू के घर से अलग होने का पूरा दोष हमेशा अपनी बहू स्वाति व उसके मायके वालों पर लगाते रहते थे। गाहे- बगाहे फोन कर के अपने समधी और समधन जी को खूब खरी- खोटी भी सुनाया करते थे ।    

  एक बार संयोग कुछ ऐसा बना कि किसी रिश्तेदार की शादी में दोनों परिवारों की मुलाकात हो गई। नमस्कार वाली आपसी औपचारिकताएँ भी दोनों ओर से पूर्ण की गयीं।  

  उस समय स्वाति की डेढ़ साल की बेटी अपनी नानी की गोद में ही थी। शर्मा जी को उन्हें भला- बुरा कहने का एक और मौका मिल गया। भला इस सुनहरे मौके को वे हाथ से कैसे जाने देते! एक कुटिल मुस्कान फेंकते हुए अपने चिर- परिचित अंदाज़ में उन्होंने फिर तंज कसा, "क्यों भाभी जी, अपनी नातिन को गोद में खिलाने में कितना मज़ा रहा है न!" - अपने ससुर की यह बात सुनकर स्वाति मन ही मन खीझ गई! स्वाति की माँ को भी बहुत बुरा लगा।  

" हाँ भाई साहब! आप से बेहतर और कौन जानता होगा कि अपनी नातिन को अपनी गोद में खिलाने मेें कितना आनंद मिलता है! " स्वाति की माँ ने प्रिया की दो साल की नन्हीं मासूम बेटी की ओर इशारे करते हुए कहा जिसे उस समय शर्मा जी ने अपनी गोद में ही उठा रखा था। 

शर्माजी की भौंहे तन गईं। पर कुछ बोल न सके और चेहरे पर झूठी मुस्कान सजाए, वहाँ से चल दिये। आखिर वे बोलते भी तो क्या!! अपने पति और ससुराल वालों से झगड़ा हो जाने के कारण तलाक का नोटिस देकर उनकी बेटी प्रिया भी तो पिछले दो सालों से अपने मायके में ही बैठी थी। 

शुक्रवार, 10 मई 2019

बदनीयती


        सुबह के दस बज रहे थे. नाश्ता करके मेरे पति, मैं और दोनों बच्चे सब अपने अपने काम में व्यस्त हो गए थे. तभी फोन की घंटी बजी। ट्ट्रिंग...ट्ट्रिंग...ट्ट्रिंग...ट्ट्रिंग...फोन मेरे पास ही था तो मैंने झट से फोन उठा लिया।
  दूसरी ओर से आवाज आई,"हैलो..हैलो ,अवंतिका !"

"हाँ...हैलो... कौन, बीनू दीदी, नमस्ते...!"दीदी ने बहुत दिनों बाद फोन किया था इसलिए उनसे बात करने के लिए मैं बहुत उत्सुक थी। जब कभी उनकी हमारी मुलाकात होती है तो हम बड़ी गर्मजोशी एक दूसरे के गले लगते हैं। 

"ख़ुश रहो अवंति। कैसी हो?" 

" सब ठीक है दीदी और आपके यहाँ क्या हाल चाल है ? घर पर सब कैसे हैं?.. जीजू, बच्चे??? "

" सब कुछ ठीक है अवन्ती। आज तुम्हारे बेटे का बरिक्षा(सगाई) है !"-बड़ी गंभीर मुद्रा में उन्होंने कहा। 
मुझे समझ नहीं आया, आखिर दीदी यह क्या कह रही हैं ? मेरे बेटे का बरिक्षा और मुझे ही नहीं पता ? मैं अचकचा गई।
  शंकित मन से मैंने पूछा - 'मेरे बेटे का बरिक्षा ?दीदी आप यह क्या कह रही हैं. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है. मेरी घबराहट को वे तुरंत भांप गई। बोली, "अवंतिका तुम तो घबरा गई अरे मैं तो मजाक कर रही थी. तुम तो ख्वामखां घबरा गई. अरे मेरा बेटा और तुम्हारा बेटा बंँटा है क्या ? मेरे बेटे रिक्की का बरिक्षा है !"" "ओह! तो यह बात है! अब समझी दीदी ।क्या दीदी... आप भी बड़ा मजाक करती हैं. आपने तो मुझे डरा ही दिया था। " 
  आज दीदी बड़ा अपनापन जता रही थीं। हमारे निवास स्थान से कुछ चंद मिनटों की दूरी पर रहती हैं परंतु न कभी आना और न जाना।कभी हाल चाल जानने की कोशिश भी नहीं की। परंतु मिलने पर या आमने सामने होने पर उनका रवैया अलग ही होता है।जैसे दो पक्की सहेलियाँ, जो न जाने कितने अरसे के बाद एक दूसरे से मिली हों और ढेरों बातें करने को अकुला रही हों।

" दीदी, बहुत बहुत बधाई ! कब है बरिक्षा ?"

"आज ही है ..., दोपहर १२ बजे ।"

"क्या?? दीदी... ,मुझे अब बता रही हैं ?इस समय साढ़े दस बज रहे हैं। इतनी जल्दी मैं कैसे आ पाऊँगी ?"

" तुम्हारे और मेरे घर में दूरी ही कितनी है अवंतिका ? अरे दस मिनट का भी रस्ता नहीं है , आराम से पहुँच जाओगी !"

"लेकिन दीदी.. अचानक से कैसे ? पहले से कुछ बताई होतीं तो ठीक होता न!! "

  दीदी सफाई देने लगी - "अरे अवंतिका, क्या बताऊँ तुमसे , लड़की वाले अचानक प्रोग्राम बना लिए, कि आज ही बरिक्षा कर लिया जाए !"

"ऐसा क्यों दीदी ?"- मैंने अचरज से प्रश्न किया तो बोली - " वे लोग यहाँ के नहीं हैं न, एक दिन पहले ही मुम्बई आए हैं , होटल में रुके हैं , कल चले जाएंगे ।"

     मन में कई बातें उमड़ने लगी- ऐसे शुभ अवसर पर कोई ऐसे निमंत्रण देता है क्या ! शायद हमें बुलाना नहीं चाहते हो, फिर, शायद समाज के बारे में सोच- विचार किया हो कि दुनिया क्या कहेगी ? आखिर सात - आठ किलोमीटर की दूरी पर ही तो है हम लोग, फिर भी क्यों नहीं बुलाया आदि आदि ?

"अच्छा.... तो दीदी, तब कार्यक्रम कब तक चलेगा ?"

"बस, यही दो - चार घंटे का कार्यक्रम है । जान लो कि चार - पांच बजे तक सब निबट जाएगा ।"

     जिस तरह से उन्होंने मुझे निमंत्रण दिया मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा इसलिए अपने न पहुंच पाने की वजह बताते हुए मैंने भी असमर्थता जाहिर कर दी - 
  "दीदी दरअसल,आज हमें बाहर जाना है। मेरी बिटिया को इनाम मिलने वाला है। बारहवीं की परीक्षा में 95% लाने के कारण समारोह में उसे सम्मानित किया जाएगा है । इसलिए वहाँ जाना जरूरी है ।"
दीदी का दिल रखने के लिए मैंने उन्हें बेटी के कार्यक्रम के बारे में जानकारी देना सही समझा, अन्यथा उन्हें लगता कि मैं बहाने बना रही हूँ।

    मेरी बात सुनकर मानो दीदी के पास कोई रास्ता नहीं था सिवाय यह बोलने के कि बेटी के इस कार्यक्रम में शामिल होना भी जरूरी है।

    फिर न जाने क्या सोचकर मैंने तय किया कि सम्मान समारोह अगर जल्दी निबट जाएगा तो दीदी के यहाँ बरिक्षा में भी शामिल हो जाएँगे। 
परंतु सम्मान समारोह का वेन्यू बहुत दूर था , इसलिए घर पहुँचते पहुँचते रात के बारह बज गए। इसलिए हमने तय किया हम अगले दिन उनके घर जाएंगे ताकि उन्हें कुछ कहने का मौका न मिले, नहीं तो जीवन ताने मारेंगी। बंदिनी था उनका असली नाम। लेकिन प्यार से सब उन्हें 'बीनू' बुलाते थे। वे मेरी बुआ की बड़ी लड़की है। नातिन होने के कारण दादी की बहुत चहेती थी। मेरे पिताजी भी उनसे बहुत प्यार करते थे।

     बीनू दीदी के पति नारंग जीजू ने आज से तकरीबन बीस साल पहले पिताजी से पैंतालीस हजार रुपये यह कहकर उधार मांगे थे कि एक महीने में लौटा देंगे। बिना ना - नुकुर किए पिताजी ने झट से पैसे निकाल कर दे दिए थे। पर तीन महीने गुजर जाने के बाद भी जब उन्होंने रूपए नहीं लौटाए तो पिताजी ने उन्हें फोन किया, नारंग जीजू ने कुछ और दिनों का समय मांगा। पिताजी ने उनकी बात मानकर उन्हें कुछ और समय दे दिया। इस तरह वे कोई न कोई बहाना बनाकर हर बार समय मांगते रहे और पिताजी बड़ा दिल करके उन्हें समय देते गए। इस बीच हमारे घर में न जाने कितनी सगाईयाँ और शादियाँ हुईं। कभी रामायण का पाठ, कभी कोई अन्य कार्यक्रम।हर बार पिताजी जरूरत पड़ने पर नारंग जीजू से पैसे माँगते रहे। दीदी से भी उन्होंने कई बार अपने दिए हुए पैसे का तकादा किया। पर हर बार वही ढाक के तीन पात। उन्हें अपने उधार दिए हुए पैसे नहीं मिले। नारंग जीजू ने उन पैसों से गांव में जमीन खरीदी थी, जिसकी कीमत आज पचास- साठ लाख हो गई है। परंतु उन्होंने उधार के व‍ह पैंतालीस हजार आज तक नहीं लौटाए। इस वजह से हमारे रिश्तों में धीरे धीरे खटास आ गई। बीनू दीदी ने भी नारंग जीजू का ही साथ दिया। सबसे कहती फिरती थी कि केवल पांच हजार रुपये लौटाने बाकी हैं। बाकी के पैसे उन्होंने मामाजी को लौटा दिए हैं।

   खैर, रास्ते की धूल मिट्टी फाँकते हुए अगले दिन मैं उनके घर पहुँची। यहाँ यह उल्लेख करना जरूरी है कि मैं उनके उस घर में गई जो असलियत में कभी नारंग जीजू के मामा का घर था। हमारे सारे रिश्तेदारों को यह बात बहुत अच्छी तरह पता थी कि वह घर भी उन्होंने अपने मामा को धोखा दे कर, कागजों में कुछ हेरफेर करके अपने नाम करवा लिया था।

    उनके घर जाने से पहले ही मैंने उन्हें फोन करके बता दिया था कि मैं शाम के पांच बजे तक आऊंँगी ताकि उनकी दोपहर की नींद में कोई खलल न पड़े।

    जो सोचा था, वही हुआ। जब मैं वहाँ पहुँची, दीदी सो रही थी। दरवाजा रिक्की ने खोला। तुरंत पहचान गया। दीदी को जाकर सूचना दे आया कि अवंतिका मौसी आई हैं।

     दरवाजा खुलते ही मैं सीधा अंदर वाले कमरे में चली गई। मेरी अवाज सुनकर दीदी आँखें मीचते हुए उठी। मुस्कुराते हुए तुरंत उठकर मुझसे गले मिली।

    मैंने उन्हें बेटे के रिश्ते के लिए मुबारकबाद दी। उनके चेहरे पर एक हल्की- सी मुस्कान बिखर गई।

    मुझे वहीं बेड पर बैठने के लिए कहा। थोड़ी ही देर में रिक्की पानी और बालूशाही ट्रे में रखकर ले आया। इधर - उधर की बातें होने लगीं। लड़की कहाँ की है ? क्या करती है? कितनी पढ़ी- लिखी है ? आदि।

   "दीदी, अपनी होनेवाली बहू की तस्वीर तो दिखाइए। उन्होंने तुरंत रिक्की को आवाज दी। रिक्की, मौसी को लड़की की तस्वीर दिखाओ। रिक्की ने मोबाइल को ऑन करके फोटो गैलेरी खोल दी और फोन मेरे हाथ में देकर बाहर चला गया।

" लड़की सुंदर है, दीदी। नाक - नक्श भी काफी अच्छा है।"

" हाँ, लेकिन रंग तुम्हारे जैसा है ।थोड़ा रंग दबा हुआ है । "

" तो क्या मैं खराब हूँ दीदी ? " मैंने आश्चर्य जताया।

"नहीं , लेकिन मुझसे कम गोरी है, बस वही खटक रहा है ।"

 दीदी के लिए गोरा होना ही सुंदरता का मापदंड था।

दीदी अपनी शादी की बातें बताने लगीं कि उनकी सास ने उनके रिश्ते के समय कहा था कि लड़की गोरी होनी चाहिए। नाक- नक्श भले ठीक न हो, तो भी चलेगा। मैंने उनसे कहा," दीदी, अब जमाना बदल गया है।बड़े अनमने ढंग से उन्होंने भी हामी भरी । फिर शुरू हुआ सिलसिला उन तोहफों को दिखाने का जो उन्हें बारिक्षा में मिला था।

    घर के सभी लोगों के लिए कपड़े, पर्फ्यूम, कंघी, तेल, साबुन, साड़ी, सूट के कपड़े आदि सबकुछ तो चढ़ाया था लड़की वालों ने बरिक्षा में। मंदिर की दराज में रखा पंद्रह लाख का वह चेक भी दीदी ले आईं जो लड़की वालों ने नारंग जीजू के नाम पर काटा था।

    तभी जीजा जी ने कमरे में प्रवेश किया। मैंने उन्हें भी रिश्ता तय होने की बधाई दी। बड़े अनमने भाव से उन्होंने मेरी बधाई स्वीकार की। मुझे थोड़ा अजीब लगा किंतु मैंने उस बात को वहीं छोड़ देना उचित समझा। रिक्की के अलावा उनकी दो बेटियांँ भी है जो उस समय घर पर नहीं थी। वे दोनों ऑफिस गई थी। बड़ी बेटी है दृष्टि, जिसने एम.बी.ए. किया है और आज व‍ह एक बड़ी बैंक में एक अच्छे पद पर कार्यरत हैं। दूसरी बेटी है दिव्या जिसने सिविल इंजिनियरिंग की डिग्री हासिल की है, वह भी एक अच्छी कंपनी में काम कर रही है। दोनों का वेतनमान भी काफी अच्छा है। दोनों विवाह योग्य हो गई हैं। सो, मैंने उनकी शादी की बात भी छेड़ दी।

   नारंग जीजू कहने लगे, "अभी दोनों शादी नहीं करना चाहती। कहती हैं कि जब हम अपने पैर पर अच्छे से खड़े हो जाएँगे, थोड़ा सैटल हो जाएँगे, तभी शादी करेंगे।" फिर कुछ सोचते हुए बोले, "वैसा लड़का भी तो मिलना चाहिए कि जिसको दहेज न देना पड़े। अरे भई ! हमने अपनी लड़कियों को इतना पढ़ाया - लिखाया है तो क्या दहेज देंगे! इंजीनियरिंग और एम. बी. ए. कराने में हमने लाखों रुपये खर्च कर दिए हैं।"

    तभी मैंने उनकी बात काटते हुए कुछ मजा़किया लहजे में कहा," जीजा जी ! अब आप भी तो बेटे के लिए इतना दहेज ले रहे हैं! फिर बेटी को दहेज क्यों नहीं देंगे !"

  "हमको कुछ मिल थोड़े ही रहा है, अब खुद ही हिसाब लगा लो ! छः सात लाख रुपये तो शादी में ही खर्च हो जाएँगे। फिर बचेगा ही क्या ? बाकी रुपए सर - सामान, कपड़े- लत्ते, गहना - गुरिया में ही खर्च हो जाएँगे। वे लोग इसके अलावा और कुछ नहीं दे रहे हैं, घर का कोई सामान नहीं मिलने वाला है।"

    मैं समझ गई कि जीजाजी ख़ुश नहीं थे।उनके चेहरे पर खिन्नता भाव स्पष्ट झलक रहे थे। 
लड़की वालों ने न जाने किस तरह से अपनी लड़की की शादी के लिए पैसे जुटाए होंगे। अपने खून पसीने की कमाई लगा दी होगी पर जीजा जी के चेहरे पर मुस्कान नहीं थी।

    कितना दोहरा मापदंड है। एक तरफ उन्हें अपनी बेटी के लिए ऐसा लड़का चाहिए, जो बिल्कुल दहेज की मांग न करे और दूसरी ओर बेटे को दहेज में मिल रहे पंद्रह लाख रुपये भी कम लग रहे हैं। ऊपर से लड़की भी पढ़ी- लिखी पोस्ट ग्रेजुएट और सुंदर।

    शाम के सात बज रहे थे। अँधेरा हो रहा था इसलिए मैं ने भी उनसे जाने की अनुमति ली। निकलते - निकलते बीनू दीदी ने मेरे हाथ में एक थैला थमा दिया। मैंने लेने से इनकार कर दिया, पर उनके बहुत आग्रह करने पर मना नहीं कर सकी। घर पहुँची तो सोचा खोल कर देखे कि आखिर दीदी ने इतने प्यार से दिया क्या है !

    दो केले, एक संतरा, एक अनार, एक बालूशाही और एक बर्फी देखकर मुझे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ कि दीदी ने बड़ा दिल करके मुझे ये दिया है ! बच्चे भी देखकर हंँसने लगे, "मम्मी, मंदिर के पुजारी जी ने प्रसाद दिया है क्या ?" 
     बच्चों की बातें सुनकर पति देव के चेहरे पर भी मुस्कान फैल गई। वे भी उनकी फितरत को अच्छी तरह से जानते थे, सो, वे कुछ न बोले।मैं भी क्या कहती ? निशब्द थी, कुछ बोल न पाई। 

      अगले दिन जब हाल - चाल लेने के लिए मेरी मम्मी का फोन आया तब पता चला कि वाहवाही लूटने के लिए जीजा जी ने सब जगह फोन करके यह खबर फैला दी थी कि उनके बेटे को दहेज में पंद्रह लाख मिल रहे हैं। यहाँ तक कि जीजा जी पिताजी को मेरे आने की सूचना भी दे चुके थे।

     मम्मी ने उन पंद्रह लाख रुपयों की बात छेड़ी कि क्या मैंने व‍ह चेक देखा है जिसकी बात नारंग जी कर रहे थे। मैंने भी मम्मी को पुष्टि कर दी कि मैंने चेक अपनी आँखों से देखा है, जीजू के नाम पर ही है व‍ह चेक।

     माँ चौंक गई कि रिक्की अब तक कहीं नौकरी पर भी नहीं लगा है, एम. ए, बी. एड. ही तो है, शिक्षक बनकर कितना कमा लेगा।

     और क्या देखकर लड़की वाले उसे पंद्रह लाख दहेज दे रहे हैं ? बातों बातों में मम्मी ने कहा कि नारंग जीजू मेरे पिताजी को बता रहे थे कि लड़की अपने घर की इकलौती है। माता - पिता के अलावा उसका और कोई नहीं है। लड़की के पिता ठेकेदारी करते हैं। पैसों की कोई कमी नहीं है और माता - पिता के बाद सब कुछ उस लड़की और रिक्की का ही होगा। जैसे नारंग जी के दादाजी को नेवासा(ससुराल की जायदाद ) मिला था। वैसे ही रिक्की को भी अपने ससुराल की सारी जायदाद मिलेगी।

     मेरे आश्चर्य का ठिकाना न था कि कोई व्यक्ति इतना स्वार्थी कैसे हो सकता है ? क्या उन्होंने सचमुच इतना हिसाब - किताब लगाया होगा ? क्या नारंग जीजू ने इतना सब कुछ सोचकर, पूरा आकलन करने के बाद यह रिश्ता मान्य किया था ?

  कभी- कभी लगता है कि क्या समाज ऐसे बदनियत और स्वार्थी लोगों से कभी छुटकारा पा सकेगा ?

रविवार, 14 अप्रैल 2019

वाई-फाई


वाई-फाई खत्म हो गया था और कुछ तंगी भी चल रही थी. बेटे के बार - बार कहने पर भी जब माँ ने वाई-फाई  रीचार्ज नहीं करवाया. तो माँ से उनके मोबाइल का हॉटस्पॉट मांगने लगा.माँ ने सोचा पूरा दिन पबजी खेलता है, इसी बहाने कुछ दिन तो रात में जल्दी सो जाया करेगा इसलिए माँ ने जब हॉटस्पॉट देने से भी मना कर दिया, तो बेटा तमतमाकर बोला, "भाड़ में जाओ."
उस दिन मां बिलख - बिलख कर रोई.
बच्चों को सभी सुख-सुविधाएँ आसानी से मुहैया करा देने का क्या यही परिणाम होता है??

##(100 शब्दों की कहानी)##

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

वह पीला बैग



"भाभी यह बैग कितना अच्छा है!! कितने में मिला?" नित्या की कामवाली मंगलाबाई ने सोफे पर पड़े हुए बैग की तरफ लालचाई नजरों से इशारा करते हुए जब उससे यह कहा तो उसने भी अनमने ढंग से उसकी हाँ में हाँ मिला दी और अपने काम में जुट गई।

वह पीले रंग का बैकपैक कल ही उसके फेयरवेल में उसकी बॉस ने उसे उपहार में दिया था। नित्या से तकरीबन दोगुना अधिक वेतनमान पानेवाली उसकी बॉस का उसके प्रति ऐसा व्यवहार देखकर वह वैसे ही दुखी थी.
  "बेवजह कभी छुट्टी भी नहीं ली मैंने। दफ्तर का काम हर रोज घर पर ले आती थी इसलिए पति और बच्चों की डांट भी खाती थी। मेरा प्रतिदिन का ओवरटाइम करना भी उनको याद नहीं रहा। हाँ बस बाकियों की तरह चाटुकारिता करने में पिछड़ गई थी। कदाचित् यही कारण रहा होगा कि इतने वर्षों के पूर्ण समर्पण और सेवाभाव के बाद भी मेरी बॉस ने मुझे ऐसा प्रतिफल दिया था। मैं उनके लिए केवल एक कर्मचारी थी... उनकी अधीनस्थ कर्मचारी बस! और कुछ नहीं???

मिसेज शर्मा के फेयरवेल में तो उन्होंने क्या- क्या नहीं किया। पूरा ऑफिस, दो हफ्ते पहले से ही उनके फेयरवेल की तैयारी में जुट गया था. कितनी सारी प्लानिंग की थी ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे.बाकायदा दावत भी दी गई थी और उम्मीद से परे, फेयरवेल का कार्यक्रम इतना अच्छा हुआ कि कोई सोच भी नहीं सकता।

गिफ्ट को देखते ही बच्चों ने भी मुँह बिचका लिया था। "दो सौ, तीन सौ से ज्यादा की कीमत नहीं होगी इसकी। मुझे कोई ऐसी गिफ्ट दे तो मैं तो बिलकुल न लूँ मम्मी।" - कहते हुए उसकी बेटी ने बैग को एक किनारे लगा दिया। " मम्मी, मुझे तो लगता है कि उनकी बेटी को ये गिफ्ट मिला होगा और इतना गाढ़ा पीला रंग और इसकी खराब क्वॉलिटी देखकर उन्होंने आपके गले लगा दिया।" - नित्या की छोटी बेटी ने सारा गणित लगा लिया था।
 फिर तपाक से बोली, "मम्मी, अब केवल एक काम हो सकता है इसका। देखिए! न आप को यह पसंद है और न ही मुझे। यह टीनेज बच्चों वाला रंग बच्चों पर ही जंँचता है। तो क्यों न हम किसी बच्चे के बर्थडे पर इसे गिफ्ट कर दें? "उसकी बात मुझे कुछ अटपटी - सी लगी। जो चीज मुझे पसंद नहीं!.. वह दूसरे को पसंद आएगी??? न, न, मुझे नहीं अच्छा लगेगा। और मैं इतनी ओछी हरकत नहीं कर सकती। "

"तो ठीक है.. अब आप ही सोचिए कि आपको इसका करना क्या है। " कहते हुए बेटी अपने कमरे की ओर चल दी।

शायद यही कारण था कि कल जब बाकी सहकर्मी मुझपर अपने - अपने गिफ्ट खोलने के लिए दबाव बना रहे थे तो उन्होंने तुरंत मना कर दिया था कि कोई गिफ्ट नहीं खुलेगा। बड़े प्यार भरे लहजे में मेरी ओर अपनी मुस्कुराहट फेंकते हुए बोली थी -" वह इसे घर ले जाएगी और अपने पति और बच्चों के सामने खोलेगी। "
पति और बच्चे क्या सोचते होंगे मेरे बारे में? उनकी नजरों में क्या मेरी यही कीमत थी। यदि फेरवेल देने की इच्छा नहीं थी तो न देती। सबके सामने यूँ दिखावा करने की क्या जरूरत थी, मैंने तो नहीं कहा था कि मुझे फेयरवेल चाहिए। क्यों मेरी भावनाओं के साथ उन्होंने खिलवाड़ किया। मुझसे कितनी ही बार बच्चों ने कहा था मम्मी इतना अटैच मत होइए। पति ने भी समझाया, "नित्या, थोड़ा प्रैक्टिकली सोचो. तुम्हारी बॉस, और तुम्हारे उसूल तुम्हें कभी आगे नहीं बढ़ने देंगे। तुम देख क्यों नहीं पा रही हो कि तुम्हारे बाद के आये हुए लोग कितना आगे बढ़ गए और तुम आज भी वहीं हो जहाँ पहले दिन थी। इतने कम वेतन में काम मत करो, कहीं और देखो तुम्हें इतना अनुभव है... किसी न किसी अच्छी कंपनी में तो लग ही जाओगी। "
नित्या भीतर ही भीतर कुढ़ रही थी। खुद को
ठगा हुआ महसूस कर रही थी।

उनके बार - बार समझाने पर भी क्यों मैंने उनकी बात नहीं मानी। क्यों मैंने बहुत पहले ही अपनी नौकरी नहीं छोड़ दी। मैं उनकी असलियत को भांँप नहीं पाई... और इतनी लगन से काम करती रही।"
 बॉस ने कितनी ही बार नौकरी छोड़ने का इशारा किया था परंतु नित्या ने कभी संजीदगी से इस बात पर ध्यान नहीं दिया था उसे लगता कि गलती करने पर डांट पड़ रही है।
नित्या को खुद पर बहुत क्रोध आ रहा था कि क्यों वह यह समझने में नाकाम रही कि जो उनकी चापलूसी करता है वही यहाँ लंबे समय तक टिका रहता है और उसे तरक्की पर तरक्की मिलती जाती है। मुझ जैसा अनाड़ी केवल कोल्हू के बैल की तरह नधा - नधा, सिर झुकाए अपना काम करता रहता है। और अंत में उसके पास होता है शून्य, बस शून्य। अपने इसी उधेड़बुन में नित्या आधी रात तक करवटें बदलती रही। नींद ने कब उसे आगोश में ले लिया, उसे पता ही नहीं।

भाभी, भाभी कहाँ खो गई, बोलिए न... सहसा कानों में मंगलाबाई की आवाज पड़ते ही नित्या की तंद्रा भंग हुई। "भाभी, मेरी नातिन भी कई दिनों से ऐसा ही बैग खरीदने के लिए जिद कर रही है। मैंने सोचा है कि इस बार की पगार से उसको ऐसा बैग खरीदकर दे दूंगी। कितनी खुश हो जाएगी वह। अगले हफ्ते उसका जन्मदिन भी है। " मंगलाबाई सस्मित बोले जा रही थी और नित्या उसके चेहरे पर उभरते हुए भावों को पढ़ रही थी।
शायद उसे समझ में आ गया था कि उसे इस बैग का क्या करना है।

मंगलाबाई, तुम्हें बैग खरीदने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें यह बैग पसंद आया है न। तो.. तुम्हारी नातिन के लिए मेरी ओर से यह छोटी - सी भेंट! कहते हुए नित्या ने उसे वह बैग पकड़ा दिया।
भाभी, आप कितनी अच्छी हैं..मैं... मैं बता नहीं सकती कि मेरी नातिन इसे पाकर कितनी खुश होगी।
  चेहरे पर मुस्कान समेटे हुए, और न जाने क्या - क्या सोचते हुए वह तेजी से अपने काम में जुट गई।
उसके चेहरे की मुस्कुराहट देखकर नित्या को एक अजीब से सुख की अनुभूति हो रही थी। थोड़ी देर के लिए ही सही पर अपनी बॉस की ओछी सोच के आवरण से बाहर निकल पाने में कामयाब हुई थी नित्या।

सुधा सिंह 📝


PS :यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है केवल स्थान व पात्रों के नाम बदले गए हैं.


सोमवार, 1 अप्रैल 2019

रीढ़ की हड्डी.. लघुकथा


  एक दिन नटवरलाल जी चलते - चलते दफ्तर में अचानक से गिर पड़े, तो दो चार क्लर्क उठाकर उन्हें अस्पताल ले गए. डॉक्टर ने जाँच करने के बाद कहा कि इनकी रीढ़ की हड्डी कमजोर हो गई है, प्रतिदिन तन कर चलने की कसरत करेंगे तो रीढ़ की हड्डी फिर से ठीक हो जाएगी. कहीं ये ज्यादा झुके- झुके तो काम नहीं करते ?

 तभी अचानक पास ही खड़ा उनका एक सह कर्मचारी दूसरे कर्मचारियों की ओर देखते हुए बोल पड़ा, "डॉक्टर साहब, काश यह गुण हममें भी होता.. आज हम भी इनके जैसे बड़े पद पर बैठे होते.
डॉक्टर साहब अवाक् थे.

सुधा सिंह 👩‍💻

(100 शब्दों की कहानी)

आनंद लीजिए 'रात की थाली ' का भी

गुरुवार, 28 मार्च 2019

संतरे के छिलके....


संतरे के छिलके...



शाम के पांच बज रहे थे। एक विशेष सरकारी काम से मैं और मेरे साथ मेरी दो सह- शिक्षिकाएं ठाणे से लौट रही थीं।ट्रेन प्लैटफॉर्म पर लगी हुई है यह देखकर हम खुश हो गए कि चलो अच्छा है, अब ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा। किस्मत भी अच्छी थी कि ट्रेन में चढ़ते ही खाली सीट भी मिल गई। हमारे सामने की ही सीट पर एक महिला भी अपनी नौ दस साल की लड़की के साथ सफर कर रही थी।केवल तीन ही स्टेशनों के बाद उसे उतरना भी था।

ट्रेन चलते ही कई फेरीवाले अपना -अपना सामान बेचते हुए हमारे सामने से गुजरे। परंतु पंद्रह मिनट के इस सफर में कोई भी फेरीवाला ऐसा न था , जिससे उस महिला ने कुछ खरीदा न हो। मोल - भाव करके एक संतरे वाले से उसने दस रुपए के तीन सन्तरे भी खरीद लिए। दो सन्तरे बेटी को पकड़ाकर तीसरा वह खुद खाने लगी।

 जैसे ही संतरे ख़त्म हुए,उसने सारे छिलके एक झटके में ट्रेन की खिड़की से पार कर दिए न आव देखा, न ताव । और फिर जैसे अनजान बनकर सबसे आँखें बचाती हुई अपने पर्स में कुछ ढूँढने लगी। इस बीच उसकी बेटी ने भी सन्तरे खा लिए थे पर असमंजस में बैठी थी कि छिलकों का किया क्या जाए... शायद स्कूल में दी जाने वाली शिक्षा और माननीय श्री मोदी जी के स्वच्छ भारत अभियान का असर उस पर इतना तो हुआ ही था कि वह छिलकों को ट्रेन की खिड़की से बाहर फेंकने से हिचकिचा रही थी और यह भी समझ रही थी उसके ऊपर कभी -कभार हमारी नजर भी चली जा रही है। बहरहाल , थोड़ी देर तक जब उसे कुछ नहीं सूझा तो उसने अपने छिलके भी अपनी माँ को पकड़ा दिए और माँ ने इस बार भी अपने उसी अंदाज में छिलकों को उसके अंतिम गन्तव्य तक पहुँचा दिया। बेटी बगले झाँकने लगी और हम तीनों निशब्द... कहते क्या । बस एक दूसरे का मुँह ताकते रह गए।

सुधा सिंह 👩‍💻

रविवार, 3 फ़रवरी 2019

मुग़ल- ए - आज़म


मुगल- ए- आज़म ....
  चोरी कर रही थी मैं। अच्छा हुआ किसी ने देखा नहीं। सबकी आंखों से बच - बचाकर एक ऐंटीक मूर्ति, मोतियों का बड़ा सुन्दर- सा हार, बेशकीमती पत्थर उठा लिया था मैंने। पर मेरी सह - शिक्षिका ने और भी बेशकीमती वस्तुओं पर हाथ मारा था। पहली बार मैंने चोरी की थी वह भी उसी सह - शिक्षिका से प्रभावित हो कर।
जब मैंने उसे  निडरता से वस्तुओं को उठाकर अपने थैले में रखते देखा, तो मैंने उसे टोका,- "यह क्या कर रही हो, किसी ने देख लिया तो?
सह शिक्षिका (चिढ़ कर)- " अंह... कोई कुछ नहीं कहेगा। हम चोरी थोड़े ही कर रहे हैं। "
अपनी स्मित रेखा के साथ उसने प्रत्युत्तर दिया -" हम अपने घर में इन्हें सजाएँगे। ये सब हमारा ही तो है। उन्होंने भारत पर आक्रमण करके हमसे लूटा था। भारतीयों ने कितना कुछ सहा है l पता है न!!! "

-जैसे किसी बच्चे को समझाते हैं उसी तरह वह मुझे समझा रही थी।
मैं सहमत थी अपनी सहकर्मी की बात से। मैंने भी सोचा कि बात तो सही है। मैं कोई गलत काम नहीं कर रही हूँ । इन सब पर हमारा ही तो अधिकार है। भारत मुगलों का थोड़े ही था। हम भारतीयों का था। मुझमें इतना साहस भर गया था कि जैसे मैं कोई वीरता का कार्य कर रही थी।

किला, राजमहल अब संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है। वह दीवार जहाँ अनारकली को जिंदा चुनवा दिया गया था। सब दर्शनीय था। खूबसूरत इतना कि आगे बढ़ने का मन ही नहीं हो रहा था। सबकुछ मन मोहक। 

हमारे साथ विद्यालय से शैक्षणिक यात्रा पर आए बच्चे अपने - अपने समूह में इस यात्रा का आनंद ले रहे थे। वे आगे थे। हम उनसे थोड़ा पीछे रह गए थे। इसलिए हमने भी अवसर का लाभ उठा लिया था ।

 बस यही डर था कि बच्चे हमें चोरी करते हुए पकड़ न ले। वे तो हमें चोर ही समझेंगे। उनपर हमारा कितना गलत प्रभाव पड़ेगा। उन्हें कैसे समझाएंगे कि हम कुछ गलत नहीं कर रहे हैं। मन में ढेरों ऐसे प्रश्न उठ रहे थे। 
अकस्मात ट्रींग..ट्रींग... की आवाज हुई और मेरी तन्द्रा टूटी। 

यह क्या.... मैं सपना देख रही थी। मुग़ल-ए - आज़म देखते- देखते कब नींद की आगोश में चली गई थी पता ही नहीं चला।

अपनी पहली चोरी और मुग़ल-ए- आज़म के बीच की कड़ी के बारे में सोच - सोचकर हँसी आ रही थी मुझे। 😊😊