रविवार, 3 फ़रवरी 2019

मुग़ल- ए - आज़म


मुगल- ए- आज़म ....
  चोरी कर रही थी मैं। अच्छा हुआ किसी ने देखा नहीं। सबकी आंखों से बच - बचाकर एक ऐंटीक मूर्ति, मोतियों का बड़ा सुन्दर- सा हार, बेशकीमती पत्थर उठा लिया था मैंने। पर मेरी सह - शिक्षिका ने और भी बेशकीमती वस्तुओं पर हाथ मारा था। पहली बार मैंने चोरी की थी वह भी उसी सह - शिक्षिका से प्रभावित हो कर।
जब मैंने उसे  निडरता से वस्तुओं को उठाकर अपने थैले में रखते देखा, तो मैंने उसे टोका,- "यह क्या कर रही हो, किसी ने देख लिया तो?
सह शिक्षिका (चिढ़ कर)- " अंह... कोई कुछ नहीं कहेगा। हम चोरी थोड़े ही कर रहे हैं। "
अपनी स्मित रेखा के साथ उसने प्रत्युत्तर दिया -" हम अपने घर में इन्हें सजाएँगे। ये सब हमारा ही तो है। उन्होंने भारत पर आक्रमण करके हमसे लूटा था। भारतीयों ने कितना कुछ सहा है l पता है न!!! "

-जैसे किसी बच्चे को समझाते हैं उसी तरह वह मुझे समझा रही थी।
मैं सहमत थी अपनी सहकर्मी की बात से। मैंने भी सोचा कि बात तो सही है। मैं कोई गलत काम नहीं कर रही हूँ । इन सब पर हमारा ही तो अधिकार है। भारत मुगलों का थोड़े ही था। हम भारतीयों का था। मुझमें इतना साहस भर गया था कि जैसे मैं कोई वीरता का कार्य कर रही थी।

किला, राजमहल अब संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है। वह दीवार जहाँ अनारकली को जिंदा चुनवा दिया गया था। सब दर्शनीय था। खूबसूरत इतना कि आगे बढ़ने का मन ही नहीं हो रहा था। सबकुछ मन मोहक। 

हमारे साथ विद्यालय से शैक्षणिक यात्रा पर आए बच्चे अपने - अपने समूह में इस यात्रा का आनंद ले रहे थे। वे आगे थे। हम उनसे थोड़ा पीछे रह गए थे। इसलिए हमने भी अवसर का लाभ उठा लिया था ।

 बस यही डर था कि बच्चे हमें चोरी करते हुए पकड़ न ले। वे तो हमें चोर ही समझेंगे। उनपर हमारा कितना गलत प्रभाव पड़ेगा। उन्हें कैसे समझाएंगे कि हम कुछ गलत नहीं कर रहे हैं। मन में ढेरों ऐसे प्रश्न उठ रहे थे। 
अकस्मात ट्रींग..ट्रींग... की आवाज हुई और मेरी तन्द्रा टूटी। 

यह क्या.... मैं सपना देख रही थी। मुग़ल-ए - आज़म देखते- देखते कब नींद की आगोश में चली गई थी पता ही नहीं चला।

अपनी पहली चोरी और मुग़ल-ए- आज़म के बीच की कड़ी के बारे में सोच - सोचकर हँसी आ रही थी मुझे। 😊😊

वह पीला बैग

"भाभी यह बैग कितना अच्छा है!! कितने में मिला?" नित्या की कामवाली मंगलाबाई ने सोफे पर पड़े हुए बैग की तरफ लालचाई नजरों से इशार...