रविवार, 21 जून 2020

नीलू...


नीलू पूरे छः महीने की हो गई थी आज। इसलिए बंटी ने माँ से केक बनवाकर  अपनी कक्षा के सभी बच्चों में बाँटकर धूमधाम से उसके छःमासे जन्मदिन की खुशी मनाई ।
बंटी जब नीलू को घर लाया था तो व‍ह मात्र दस- बारह दिन की ही थी। छोटी - सी, बस एक हाथ में समा जानेवाली। उसके उन रूई के फाहे से अधिक  मुलायम काले घने बालों पर हाथ फेरते ही हाथ फिसलने लगता था। उसकी निर्मल काली गोल- गोल आँखों की मासूमियत हर किसी को अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर लेतीं। 
"माँ, आज से इसका नाम नीलू।"-बंटी ने स्नेह से उसके बालों पर हाथ फेरा।


नीलू!! भला यह क्या नाम है हुआ एक पिल्ले का???


"माँ, इसे पिल्ला मत कहो,इसे नीलू कहो नीलू। यह  मुझे अवस्थी अंकल के बग़ल वाली नीली कोठी के पास मिली है  इसलिए मैंने इसका नाम नीलू  रखा है। अच्छा है न।"


"अच्छा बाबा ...नीलू...  बस !!सचमुच बहुत सुंदर नाम है ...नीलू...।"
  
बंटी ने बड़े प्यार से उसका नाम रखा था नीलू ।नीलू की देखरेख की सारी जिम्मेदारी दस वर्षीय बंटी ने स्वयं अपने कंधों पर ले ली थी ।प्रतिदिन सुबह- शाम उसे घुमाने ले जाना ; उसका खाना- पीना; उसके साथ खेलना... यह सब उसकी दिनचर्या में शामिल हो गया था।

नीलू की मासूम हरकतें सबको बड़ी प्यारी लगती थीं।परिवार के किसी खास सदस्य की तरह कुछ ही दिनों में वह सबकी दुलारी हो गई थी । उसके  कारण अब पहले के मुकाबले घर में चहल- पहल भी ज्यादा बढ़ गई थी।परंतु दादी को नीलू कभी पसंद नहीं आई। उन्हें कुत्तों से एक अजीब- सी चिढ़ थी।इसलिए वे उसे घर में घुसने न देतीं।

बंटी घर के बरामदे में ही उसका खाना पानी दे आता।नीलू गलती से भी कभी यदि दादी को छू लेती या चाट लेती तो दादी की भनभनाहट शुरू हो जाती।

"हरे राम..  राम..राम.. इस पिल्ली ने तो मुझे भ्रष्ट कर दिया.. अब दोबारा नहाना पड़ेगा।"
और जब तक वे दोबारा स्नान न कर लेती तब तक उन्हें चैन न पड़ता।

गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हो गई थीं।बंटी की चचेरी बुआ की शादी तय हो गई। शादी में जाने के बारे में सोचकर ही बंटी बड़ा ख़ुश था।वह एक- एक दिन गिन रहा था। गाँव जाने की सारी तैयारियाँ भी पूरी हो चुकी थी। पंद्रह दिन में लौट आने की योजना बनाकर बंटी के पिता सुभाष अग्रवाल जी ने रिटर्न टिकट भी निकाल लिया। परंतु सबके मस्तिष्क की सूई बार -बार एक ही बिंदु पर आकर अटक रही थी कि नीलू का क्या करेंगे । उसे कहाँ छोड़ेंगे।उसे ट्रेन में अपने साथ भी तो नहीं ले जा सकते। 


आखिर गर्मी की छुट्टियों का सभी को बेसब्री से इंतजार रहता है।सो आस -पड़ोस के लोग भी अपनी अपनी छुट्टियाँ मनाने के लिए कहीं न कहीं चले गए हैं।पड़ोस में अब ऐसा कोई भी नहीं था कि नीलू को कुछ दिनों के लिए उसके हवाले किया जा सके।

 शादी में शामिल नहीं हुए तो लोग- बाग दुनिया भर की बातें बनाएँगे ।इसलिए शादी में न जाने का प्रश्न ही नहीं उठता । 

 बंटी के समक्ष पूरी वस्तुस्थिति रखी गई तो बंटी भी उदास हो गया और नीलू को भी अपने साथ ले जाने की ज़िद करने लगा।परन्तु सुभाष जी ने  चार- पाँच दिन में लौट आने का भरोसा दिलाते हुए किसी तरह से उसे मना लिया।


वह दिन भी आ गया जब उन्हें गाँव के लिए निकलना था।नीलू के लिए खाने -पीने का पूरा इंतजाम करके अपरिहार्य स्थिति में सब टैक्सी से रवाना हुए।

बरामदे के बाहरी द्वार पर ताला औऱ कुंडी न लगाकर खुला छोड़ दिया गया ताकि वह अपनी आदत औऱ  प्राकृतिक आवश्यकता के अनुसार सुबह- शाम घूमने निकल सके। 

गाड़ी में बैठ तो गए किंतु सभी को नीलू की ही चिंता घेरे थी विशेष तौर से बंटी को।परंतु मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है और मजबूरी वश उसे कई अवांछित कार्य करने पड़ते हैं। घर से निकलते वक़्त नीलू का बार -बार भौंकना सब को परेशान कर रहा था। मानो वह सबसे शिकायत कर रही हो कि सभी उसे अकेला छोड़कर कहाँ जा रहे हैं।आखिर एक मूक प्राणी अपने मन की बात को बताए भी तो कैसे ...यही सोचकर सबके मन में एक अपराधबोध उत्पन्न हो रहा था।

गाँव पहुँच कर सब विवाह के रीति रिवाजों में व्यस्त हो गए। फिर भी रह-रहकर सबका ध्यान नीलू की ओर चला ही जाता था।शादी की सारी औपचारिकताओं को निभाकर एक पखवाड़े बाद सब लौट आए।

  टैक्सी घर के सामने रुकी ही थी कि नीलू से मिलने की आस में बंटी सीधा बरामदे की ओर दौड़ा।परंतु नीलू  बरामदे से नदारद थी।उसे वहाँ न पाकर वह इधर- उधर खोजने लगा।

"नीलू...नीलू....कहाँ हो....नीलू... पापा.. माँ.. नीलू कहीं दिखाई नहीं दे रही... पापा ... देखो न ...नीलू कहीं नहीं दिखाई दे रही।" -बंटी बेचैन हो उठा।

"बंटी ..बेटा... नीलू यहीं कहीं होगी ...तुम चिंता मत करो ....देखो.... उस तरफ देखो..हो सकता है बाहर  गई हो.. आ जाएगी थोड़ी देर में घूम-फिरकर।-" माँ ने बंटी को समझाने का प्रयास किया।

सब अपने कामों में व्यस्त हो गए परंतु बंटी  खिड़की से बाहर अपनी नजरे गड़ाए अनमना - सा सोफ़े पर ही बैठा रहा।उसका मन कहीं नहीं लग रहा था।

सूर्य अस्तांचल पर था।धीरे- धीरे अँधेरा भी गहराता जा रहा था पर नीलू  की अब तक कोई खबर न थी। काफी देर हो चुकी थी।सबकी व्याकुलता भी चरम सीमा पर  थी । इसलिए बंटी और सुभाष जी अपनी आवासीय कॉलोनी के आस -पास की सभी संभावित स्थानों पर उसे तलाशने निकल गए । काफ़ी देर तक खोजने के बाद भी जब नीलू का कुछ पता न चला तो थक हार कर  दोनों वापस लौट आए।
बंटी का मासूम दिल नीलू को देखने के लिए व्यग्र था।नीलू की याद में उस रात बंटी ने एक निवाला भी अपने गले से नीचे नहीं उतारा और रोते -रोते वही  सोफ़े पर ही सो गया।सबने उसे मनाने का भरसक प्रयास किया परंतु सब व्यर्थ । 
 व्यग्रता में जैसे -तैसे रात तो बीत गई पर मन के मलाल के कारण कोई  ढंग से सो न सका।
भोर होते ही प्रतिदिन की भाँति सुभाष जी जब जॉगिंग के लिए पार्क में गए तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। एक आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता उनके चेहरे पर आ गई। फिर  कुछ ही पलों में न जाने क्या सोचकर उनके चेहरे के भाव बदल गए और उनकी आँख से भर -भर आँसू बहने लगे। यह ख़ुशी के आँसू  थे। वह खुशी जो किसी बहुत अपने के मिल जाने पर ही होती है। 

नीलू सुभाष जी के सामने थी।जैसे ही उसकी नजर सुभाष जी पर पड़ी ।तीव्र गति से दौड़ती हुई वह उनके पास आ गई और उन्हें जीभ से चाट -चाटकर वह अपना प्यार जताने लगी।सुभाष जी ने उसके शरीर पर जैसे ही अपना स्नेहसिक्त हाथ फेरा नीलू भौंकने लगी।मानो वह उनसे शिकायत कर रही हो कि उसे छोड़कर सब कहाँ चले गए थे।"

"श्रीवास्तव जी ,मैं बता नहीं सकता कि आपने मुझे आज कितनी ख़ुशी दी है।मैं जिंदगीभर आपका यह उपकार नहीं भूलूँगा।परंतु यह आप के पास कैसे..." दोनों हाथ जोड़कर सुभाष जी ने श्रीवास्तव जी को धन्यवाद देते हुए प्रश्न किया।


" भाईसाहब.. यूँ हाथ जोड़कर आप मुझे शर्मिंदा न करें..बस.. इंसानियत की भावना के नाते ही मैंने यह सब किया।आपके जाने के कुछ दिनों बाद जब मैं  मनीला से लौटा तो  मैंने पाया कि नीलू लगातार भौंके जा रही थी। काफी देर तक जब मुझे कुछ समझ न आया तो मैं आपके घर आ गया ।देखा कि घर पर नीलू के अलावा और कोई भी नहीं था । दरवाजे पर  भी ताला लटक रहा था।  कई दिनों से खाना न मिलने के कारण यह बहुत कमजोर हो गई थी और उदास भी लग रही थी।इसलिए मैं उसे अपने घर ले आया।मुझे नहीं पता था कि आप आ गए हैं ।वरना मैं खुद ही इसे..."


"अरे नहीं.. नहीं .. श्रीवास्तव जी..ऐसा मत कहिए। मैं तो आपका बहुत आभारी हूँ कि मेरी गैरमौजूदगी में आपने इस की इतनी अच्छी तरह देखभाल की। मेरे ऊपर तो आपका कर्ज़ चढ़ गया है।मैं तो इसके मिलने की उम्मीद ही खो चुका था। मैं आपको बता नहीं सकता कि मेरा बंटी इसे देखकर कितना खुश होगा.. अच्छा अब आज्ञा दीजिए।" -हाथ जोड़कर उन्होंने श्रीवास्तव जी से जाने की आज्ञा माँगी ।
और अपनी जॉगिंग भूलकर तीव्र गति से ख़ुशी - ख़ुशी अपने घर की ओर चल दिये। आज उनका परिवार फिर से पूरा हो गया था।

शनिवार, 13 जून 2020

सच्ची खुशी..



"टैक्सी.... टैक्सी.... एयरपोर्ट जाना है। कितने पैसे लगेंगे।"

"600 रुपये साब ! इतना ज्यादा...!"

*क्या करें साब, पेट्रोल में तो जैसे आग लगी हुई है।"

" अच्छा ठीक है।," कहते हुए समीर टैक्सी में बैठ गया।

" जल्दी चलाओ भाई। देर हो रही है। फ्लाइट आने में एक घंटा ही बचा है। अगर इतना धीरे चलाओगे तो हम एक घंटे में कैसे पहुंचेंगे।" 

"क्या करें साब! मुंबई की सड़कों का हाल तो आपको पता ही है.. और ऊपर से ये ट्रैफिक ! उफऽऽ.. जान ही निकाल देती हैं । पर आप चिंता मत करिए | हम समय पर एयरपोर्ट पहुंच जाएंगे।"

टैक्सी में बैठे -बैठे वह अपने मित्र आदित्य के ख्यालों में खो गया। तीन साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। आज वह एक बड़ी कंपनी में बड़े पद पर कार्यरत हैं। ऐसा लग रहा हैं मानों कल की ही बात हो।
उसे वे दिन याद आने लगे। जब वे एक साथ स्कूल में पढ़ते थे। एक दूसरे से अपनी चीजें साझा करते थे। एक साथ खेला करते। किस तरह आदित्य की मां के हाथ के बने पराठे वह पूरा चट कर जाया करता । अपने घर से ज्यादा समय वह आदित्य के घर में बिताया करता । उसके दादा - दादी की कहानियां उसे किसी काल्पनिक दुनिया की सैर कराती। उसकी मां का प्यार उसे बहुत अपनापन देता था। अपने बंगले में उसे ये खुशियां कभी नसीब ही नहीं हुई। कहने को तो घर था पर घर में ऐसा कोई न था जिसे वह अपना कह पाता ।पिताजी को अपने व्यापार से फुरसत ही न थी । कभी अमेरिका, तो कभी लंदन । उन्हें देखे महीनों बीत जाते थे । पर जब भी आते मानों खिलौनों की दुकान ही उठा लाते । मां की गोद क्या होती है । पिता का आलिंगन किसे कहते हैं। उसने कभी इसकी अनुभूति ही नहीं की। मां तो ब्युटी पार्लर, क्लब सहेलियों और किटी पार्टियों में ही अपना समय बिताती। मां - बच्चे का स्नेह तो वह कभी समझ ही नहीं पाया । उसे अपना घर, घर नहीं बल्कि एक कैदखाना प्रतीत होता । इसलिए वह अपना अधिकतम समय आदित्य के साथ ही बिताता। इसी तरह खेलते-कूदते , साथ रहते-रहते ,वे दोनों कब बड़े हो गए। कब स्नातक की डिगी ले ली पता ही नहीं चला।

"आदित्य ! अब मैं एम.बी.ए. करना चाहता हूँ। तुम्हारा क्या ख्याल है। तुमने अपने भविष्य के बारे में क्या सोचा है । अब आगे क्या करना चाहते हो।" , समीर ने उत्सुकता से पूछा ।

"चाहता तो मैं भी हूं कि विदेश जाकर एम. बी. ए. करूं ।लेकिन मेरे घर की आर्थिक स्थिति मुझे ऐसा निर्णय लेने से रोक रही है। " कहते -कहते आदित्य के चेहरे पर उदासी छा गई । उसके मुख का सारा तेज गायब हो गया । 

मानो दुख के बादलों ने उसे चारों तरफ से घेर लिया हो ।
"आदित्य तुम इतना निराश मत हो । सब ठीक हो जाएगा। कुछ न कुछ उपाय जरूर निकल आएगा। "

उसे बीच में टोकते हुए आदित्य ने कहा, "कुछ ठीक नहीं होगा समीर! मै इतने रुपये कहां से लाऊंगा । तुम तो मेरे घर की परिस्थितियों से अच्छी तरह वाकिफ़ हो। यह हजा़रों की नहीं, लाखों रुपयों की बात है। मैं तो सोच रहा हूँ कि आगे की पढ़ाई का विचार ही त्याग दूँ और कोई छोटी- मोटी नौकरी कर लूंँ ।" 

अपने मित्र की ये बातें उसे अंदर तक झकझोर गईं। वह रात भर इसी उधेड़बुन में लगा रहा कि वह ऐसा क्या करे कि उसके मित्र के चेहरे की रौनक वापस लौट आए। इन सब विचारों ने उसे रातभर ठीक से सोने न दिया । 

उस सुबह सूर्य की किरणें उसके लिए एक नया सवेरा लेकर आई। उसके मन में एक विचार कौंधा और वह दौड़ते हुए अपने पिताजी के पास पहुंँचा-"पिताजी मुझे आपसे कुछ बात करनी है। क्या आप मुझे अपना 5 मिनट दे सकते हैं।"

"हां!हां! क्यों नहीं , आज तक मैंने जो कुछ भी किया है। सब तुम लोगों के लिए ही तो किया है। ये शान-ओ - शौकत , ये बंगला, मेरी सारी जायदाद तुम लोगों की ही तो है।" पिताजी की यह बात सुनते ही उसके मन में खुशी की लहर दौड़ गई। उसे लगा कि वह जो चाहता है, उसे हासिल हो गया।" बोलो बेटा! क्या कहना चाहते हो।" पिताजी ने बड़े ताव से पूछा ।

"पिताजी !वह मेरा दोस्त है न आदित्य!, वह आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाना चाहता है।"

"ह्म्म .. अच्छा है।" पिताजी ने बड़े अनमने ढंग से कहा।

समीर के चेहरे पर हल्की - सी मुस्कान आई और उसने कहा "पिताजी लेकिन...।"

" लेकिन क्या...!" पिताजी ने भौहें तरेरते हुए पूछा।

"पिताजी उसे हमारी मदद की जरूरत है। विदेश जाने के लिए लाखों रुपये लगेंगे और वह इतने रूपयों का इंतजाम नहीं कर सकता। इसलिए मैं सोच रहा था कि क्यों न हम उसकी मदद करे !"

"समीरऽऽऽ!" गुस्से से ।

" क्या लगता है, पैसे कमाना इतना आसान है! मैंनें दिन रात एक करके तुम लोगों के लिए इतनी बड़ी जायदाद खड़ी की है और तुम चाहते हो कि मैं इसे दान में दूँ। मैंने कोई चैरिटेवल ट्रस्ट नहीं खोल रखा । भूल जाओ ,एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी।"

" पर पिताजी !" 

"एक बार कह दिया ना! इस बारे में हम दोबारा बात नहीं करेंगे।"

समीर मायूस होकर अपने कमरे में चला जाता है। वह दिन इसी उलझन में बीत गया कि वह किस तरह अपने मित्र की मदद करें। अगले दिन समीर एक उम्मीद के साथ अपने सारे सर्टिफिकेट लेकर नौकरी की खोज में निकल पड़ा।उस दिन उसने कई दफ्तरों की खाक छानी । मगर निराशा ही हाथ आई ।उसकी आंखों के सामने बार - बार आदित्य का मुरझाया हुआ चेहरा घूम जाता और उसकी बेचैनी को और बढ़ा जाता । बहुत हाथ - पैर मारने के बावजूद किसी व्यावसायिक कोर्स की डिग्री न होने की वजह से उसे हर दफ्तर से निराश लौटना पड़ा। पर मायूसी उसे अधिक समय तक अपने बंधन में न रख पाई। उसने ठान लिया कि कुछ भी हो जाए, वह अपने मित्र की मदद जरूर करेगा। इन्हीं विचारों के साथ वह अपने घर की ओर चल पड़ा।
तभी यकायक उसकी नजर एक विज्ञापन पट्ट पर गई। जिसमें किसी म्यूजिक कंपनी को एक गिटार वादक की आवश्यकता थी। उसे पढ़ते ही उसकी मन की इच्छाओं ने फिर से एक लंबी उड़ान भरी।मानों वह सातवें आसमान पर पहुँच गया हो। वह मन ही मन सोचने लगा। “मैंने तो कॉलेज के दिनों में कितने सारे कार्यक्रमों में गिटार बजाकर दर्शकों का मन जीत लिया था। मैं कैसे भूल गया कि मेरे पास इतनी अच्छी कला है। पूरा कॉलेज जिसका कायल हुआ करता था।

उसने मन ही मन कहा - "आदित्य,मेरे दोस्त तुम्हें आगे पढ़ने से अब कोई नहीं रोक सकता। मैं भेजूंँगा तुम्हें विदेश | और खुशी -खुशी उसके कदम अपने घर की ओर बढ़ चले। वही घर जो उसे किसी कैद खाने से कम न लगता।

उस रात उसे चैन की नींद आई। भोर होते ही घड़ी की टिक- टिक से उसकी नींद खुली । सुबह के 6 बज रहे थे। वह जल्दी -जल्दी तैयार हो गया और बैंक के खुलने का इंतजार करने लगा। जैसे ही घड़ी ने पौने -नौ का समय बताया । वह घर से फटाफट निकल गया और अपने बैंक खाते में जमा किए हुए सारे पैसे निकाल लिए! ! 

"पैंतालीस हजार रुपये !इतने रुपये में तो म्युजिक कांसर्ट का आयोजन हो ही जाएगा।" कार्यक्रम की तैयारी में वह जी-जान से जुट गया। दिनभर भाग - दौड़ करके उसने तैयारी पूरी कर ली। कार्यक्रम के लिए बैनर लगवाए गए। 

जगह,दिन,समय सभी कुछ निश्चित हो गया। टिकटों की कीमत भी तय हो गई।वह रामय भी आ गया जब उसका निर्णय अपने अंतिम चरण में था । समीर ने तो काँसर्ट में कमाल ही कर दिया । उसने ऐसा प्रदर्शन कॉलेज के दिनों में भी नहीं किया था । उसकी सोच रंग लाई थी। टिकटों की विक्री उम्मीद से बढ़कर हुई थी और मुनाफा भी खूब हुआ था।

"आदित्य ,आदित्य मेरे दोस्त! तुम्हें पता है, आज में बहुत खुश हूँ।" 

हाँ.. ,वह तो तुम्हारे चेहरे की लाली ही बता रही है कि तुम आज बहुत खुश हो। आखिर वात क्या है?"आदित्य समझ नहीं पा रहा था कि उसने समीर का इतना ज्यादा खुश कब देखा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसे पंख लग गए हो और वह हवा में उड़ रहा हो। मानों खुशियों ने नदी का रूप ले लिया हो और वे अपने पथ पर आगे बढ़ने को अग्रसर हो रही हो और राह में पडने वाली सभी बाधाओं को तोडकर वे अपने मार्ग पर प्रशस्त होने के लिए बेचैन हो।

आदित्य से रहा न गया । उसे फिर पूछा, "बताओ तो आखिर बात क्या हैं।"
"तुम्हें पता है! आज मेरा सपना पूरा होने वाला है। रूपयों का इंतजाम हो गया है। मैंने तुम्हारे लिए 5 लाख रूपये जमा कर लिए।" 

क्या?"आदित्य ने आश्चर्य से पूछा, "मुझे यकीन नहीं हो रहा है।"
क्या सचमुच .........।" समीर ने आदित्य की बात को बीच में काटते हुए कहा - "हाँ! आदित्य हाँ! अब तुम फटाफट विदेश जाने की तैयारी करो । और हाँ , जाने के बाद अपने इस दोस्त को भूल मत जाना ।"

"ये तुम कैसी बातें कर रहे हो समीर ! भला मैं तुम्हें कैसे भूल सकता हूँ। तुमने इतने कठिन समय में मेरी मदद की है और फिर हम तो बचपन के दोस्त है न!" अच्छा, यह तो बताओ इतने रुपयों का इंतजाम तुमने किया कहाँ से?"

"तुम यह राज जानकर क्या करोगे। तुम्हें आम खाने से मतलब है कि गुठलियाँ गिनने से । "आदित्य को बीच में टोकते हुए समीर ने कहा।

"अच्छा ठीक है,नहीं पूछता ! अब खुश ।" 

"हाँ, यह हुई न बात ! "-कहकर समीर अपने घर चला गया ।

यहाँ आदित्य वीजा, टिकट और पासपोर्ट के चक्कर में इतना व्यस्त हो गया कि वह समीर से पूछ ही नहीं पाता कि इतने रुपयों का इंतजाम उसने कहांँ से किया और एक हफ्ते बाद वह विदेश चला गया। उधर जब समीर के पिताजी को पता चलता है कि समीर ने आदित्य के लिये म्युजिक कांसर्ट मे गिटार बजाया तो उन्हें लगता है कि बेटे ने उनकी मर्जी के खिलाफ जाकर अपने दोस्त की मदद की। उनकी बातों का मान नहीं किया । उनकी इज्जत और मान - सम्मान पर बट्टा लगाया है इसलिए वे उसे घर से निकाल देते हैं।

उस दिन समीर ने अपनी रात अपने एक मित्र के यहाँ बिताई। अगली सुबह वह उसी कंपनी के दफ्तर में पहुँच गया, जहाँ गिटार बजाने वाले की जरूरत थी। किस्मत से उसे वहाँ नौकरी मिल गई। और वहाँ से उसने कुछ रूपए पेशगी के तौर पर उठाकर किराए पर घर ले लिया।धीरे-धीरे उसने अपना खुद का एक छोटा- सा इंस्टिट्यूट खोल लिया जहाँ पर विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्र बजाना सिखाया जाता और वह अपने काम में दिन भर व्यस्त रहता। उसका दिन कैसे बीत जाता पता ही न चलता।

"इतने सालों में माँ पिताजी ने एक बार भी मुझे याद नहीं किया। कितने पत्थर दिल है वे। पर एक हफ्ता भी ऐसा नहीं गुजरा जब आदित्य ने मुझे फोन न किया हो। वह इन्हों सब खयालों में खोया हुआ अपने पुराने दिनों को याद कर रहा था।तभी टैक्सी को ब्रेक लगी और वह अपने बीती हुई यादों से बाहर निकल आया।

"ये लो साब! पहुँच गए एयरपोर्ट। मैंने तो पहले ही कहा था कि हम समय पर पहुँच जाएँगे।" 

"ठीक है! ये लो अपना किराया।" 

भागा-भागा वह एयरपोर्ट के अंदर गया। आदित्य को देखते ही उसकी खुशी का ठिकाना न रहा।

"आदित्य !" समीर ने हाथ हिलाते हुए आदित्य की आवाज़ दी ।आदित्य ने भी भागकर समीर का अपन गले से लगा लिया।

"आदित्य,आखिर मेरा सपना पूरा हो ही गया। 
तुम एक बड़ी कंपनी के एक्जीक्युटिव हो। यह सुनकर रोम-रोमहर्ष से पुलकित हो उठा है। "

समीर ने अपने मन की भावनाओं का सागर आदित्य के सामने उड़ेल दिया था। 

"अच्छा, मेरी छोड़ो! ये बताओ तुम कैसे हो समीर ? और तुम्हारे माँ पिताजी! वे कैसे हैं?....." 


" अरे मुझे क्या हुआ है.. देखो, तुम्हारे सामने एकदम हट्टा कट्टा खड़ा हूँ... " समीर ने मजाकिया लहजे में अपनी ओर इशारा करते हुए कहा।

 "हाँ हाँ समीर.. वो तो मैं देख ही रहा हूँ... मेरा दोस्त आज भी उतना ही स्मार्ट दिख रहा है जितना मैं उसे छोड़कर गया था... तुम्हें पता है समीर.. मेरा कोई दिन ऐसा नहीं गया जब मैंने तुम्हें याद न किया हो... ", भावुकतावश आदित्य की आँखें नम हो गईं।

दोनों ने एयरपोर्ट पर एक- एक कप कॉफी का आनंद लिया और टैक्सी करके आदित्य के घर पहुँचे। 

" अरे आदी .... मेरा बेटा .....तू आ गया... आ बैठ...कितना दुबला हो गया है रे .. ", आदित्य की माँ ने देखते ही भावुक हो उसे अपने गले से लगा लिया और फिर 
उसके माथे पर तिलक लगाकर उसकी आरती उतारी। 

"क्या माँ.. कहाँ दुबला हुआ हूँ.. देखो जैसा गया था.. वैसा ही तो लौटा हूँ एकदम तंदुरुस्त तो हूँ ।" आदित्य ने माँ से कहा। 

तभी माँ की नजर पड़ती है समीर पर, जो अभी तक दरवाजे पर ही खड़ा था। 

"ओह.. समीर भी आया है.... आओ.. आओ बेटा..कैसे हो... इतने दिन के बाद देख रही हूँ तुम्हें.... आदी विदेश क्या गया... तुम भी हम से मिलने नहीं आए... "माँ ने उसे उलाहना दिया। 

"नहीं माँ.. अब आप तो जानती ही हैं कि आदित्य नहीं था तो.." 

माँ ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा , " आदित्य नहीं था तो क्या... हम तो थे...हमसे मिलने तो आ सकते थे न... क्या हम तुम्हारे कुछ नहीं लगते... और मैंने आदी में और तुममें कभी कोई फर्क़ भी तो नहीं किया.. फिर इतनी औपचारिकता क्यों !!! ... भूल गए बेटा, बचपन में पूरा- पूरा दिन तुम यहीं बिताते थे...

"हाँ माँ ... सब याद है.. कुछ भी नहीं भूला हूँ .. आपके हाथ के पराठों का स्वाद आज भी मेरे मुँह में है.. और वो धनिया मिर्ची की चटनी... उन सब का स्वाद.. क्या कहने... अच्छा ये बताइए आज क्या बनाया है आपने... बहुत जोरों की भूख लग रही है..." 

समीर की बात सुनकर माँ के चेहरे की स्मित रेखा लंबी हो गई और वे बोलते बोलते रसोई में खाना परोसने चल दीं, 
 "हाँ बेटा, आज भी बनाई है न तुम्हारी मनपसन्द चटनी, बस आदी हाथ मुँह धोकर आ जाए.. तुम भी तब तक अपना हाथ मुँह धो लो बेटा... मैं खाना लगाती हूँ ।" 

" खाना तो बहुत अच्छा था माँ.. बहुत दिनों बाद आपके हाथ का इतना स्वादिष्ट खाना खाया है.. अच्छा आदित्य , अब मैं चलता हूँ.. काफी देर हो गई है... " 

खाना खाने के बाद समीर ने सबसे विदा ली। आदित्य उसे बाहर टैक्सी तक छोड़ने आया , " अच्छा समीर कल मिलते हैं ... तुमसे ढेर सारी बातें करनी हैं.. कल मैं तुम्हारे घर आता हूँ... ठीक है... बाय्य्य। " 



दोपहर के दो बज रहे थे.. समीर भोजन करके बैठा ही था कि दरवाजे की घंटी बजी। 
"ओह आदित्य... मुझे लगा ही था कि तुम होगे...आओ.. आओ.. मेरे गरीब खाने में पधारो... "
गरीब और तुम... क्या मज़ाक कर रहे हो समीर.... मेरे दोस्त, तुम गरीब नहीं हो..बस तुम्हारी ज़िद है.. जो तुम अपना इतना बड़ा घर छोड़कर आज इस दो कमरे के मकान में रह रहे हो... ।" 

समीर को आदित्य की बात सुनकर आश्चर्य हुआ। उसने आदित्य को बीच में ही टोकते हुए अपना सवाल दागा, " मेरी ज़िद.. ये तुम क्या कह रहे हो.. तुम्हें किसने कह दिया ...। 

"समीर, मैं सब कुछ जान गया हूँ .. अभी - अभी तुम्हारे घर से होकर आ रहा हूँ तुम्हारे माँ और पिताजी से मिलकर... बेचारी माँ जी, तुम्हें बहुत याद करती हैं... उन्हें देख कर मुझे बहुत तकलीफ हुई समीर... इतने सालों में तुम उनसे एक भी बार मिलने नहीं गए... तुम इतने कठोर कब से हो गए मेरे मित्र!!!!" 

समीर प्रश्न भरी निगाहों से आदित्य को ही ताक रहा था जैसे कुछ समझने का प्रयास कर रहा हो। 

" तो क्या तुम मेरे घर गए थे?? "

" हाँ समीर, वरना तुम ही कहो, क्या तुमने कभी भी मुझे इस घर का पता दिया था...नहीं ना.. वो तो जब मैं तुम्हारे घर गया तब मुझे पता चला कि मुझे विदेश भेजने के लिए तुमने क्या- क्या नहीं किया... और सिर्फ मेरी ही वजह से तुम्हारे पिताजी ने तुम्हें घर से निकाल दिया... और उस समय जब मैंने तुमसे उन रुपयों के बारे में पूछा था तब भी तुमने मुझे य़ह कहकर टाल दिया था कि मुझे आम खाने से मतलब है ना कि गुठली से..." 

कहते - कहते आदित्य कुछ गम्भीर हो गया था । 

" मेरे दोस्त तुमने मुझपर इतना कर्ज़ चढ़ा दिया है कि इस कर्ज़ को शायद मैं कभी न उतार पाऊँ.. तुम इतने महान हो समीर... मैं चार जन्म लेकर भी कभी तुम्हारे जैसा नहीं बन सकता ।"  
आदित्य को अपने उपकारों के बोझ तले दबते देख समीर ने उसे अपने गले से लगा लिया और भावावेश में बोला, " अरे समीर ये क्या कह रहे हो ,तुम मेरे दोस्त हो.. और वैसे भी मैंने तुम्हारी खातिर कुछ भी नहीं किया, सब कुछ अपनी दोस्ती के लिये किया है... अपने लिए.. अपनी खुशी के लिए किया है... तुम खुद पर कोई भार न लेना.. तुममें और मुझमें कोई फर्क़ है क्या... बोलो.. नहीं ना.." आदित्य ने सहमती में अपना सिर हिला दिया । 

अच्छा आदित्य, आज मैं तुमको किसी से मिलवाना चाहता हूँ.. वो अभी आती ही होगी..." 

"आती होगी... क्या कोई लड़की…??? 

हाँ आदी, वो मेरे साथ ही काम करती है और बहुत अच्छी गायिका है... सितार तो ऐसा बजाती है आदीऽऽ.. कि बस सुनते ही रह जाओ पर मन न भरे... हम दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते हैं .." समीर एक एक करके अपने मन की पर्तें खोलता रहा और खुलती परतों के साथ उसके चेहरे की लाली भी बढ़ती रही। बोलते- बोलते वह अचानक सोफ़े से उठा और खिड़की के पास जाकर बाहर की ओर झाँकने लगा ।जैसे किसी की राह देख रहा हो फिर कुछ ही क्षणों में आदित्य के पास आकर बैठ गया। 
" लेकिन मैं चाहता था कि एक बार तुम भी उसे देखकर पसंद कर लो... तुम्हारी हाँ हो जाएगी तो हम दोनों शादी कर लेंगे... मैं बस तुम्हारे लिए ही रुका हुआ था अब तक... " 

" ओऽऽऽऽऽऽ... तो ये बात है... तभी मैं कहूँ कि एक बैचलर का घर इतनी खूबसूरती से कैसे सजा है... सबकुछ यथास्थान, करीने से लगा हुआ, तुम तो नहीं कर सकते य़ह सब... तो मेरी होनेवाली भाभी ने किया है य़ह सब... तो बताओ कब मिलवा रहे हो उनसे...", आदित्य ने चुटकी लेते हुए समीर को छेड़ा । 

 तभी दरवाजे की घंटी बजी और समीर ने लपक कर दरवाजा खोला। 

" आदित्य, ये है स्वयंबरा... स्वयंबरा ये..."

" मैं बताती हूँ समीर ..ये तुम्हारे बचपन के दोस्त आदित्य हैं न.....कहो मैंने सही पहचाना न इन्हें .. " स्वयंबरा समीर को बीच में रोकते हुए बोली। 

आदित्य अवाक था । 

" हैलो आदित्य, कैसे हो.." 

"मैं ठीक हूँ.... आप...." 

"आप सोच रहे होंगे कि मैं आपको कैसे जानती हूँ... है न... दरअसल समीर ने मुझे आपके बारे में बहुत पहले ही बता दिया था... अरे.. बताया क्या था .. दिन में कम से कम चार से पाँच बार आपका नाम न ले लें तो इनका खाना कहाँ हजम होता है.... और आदित्य, आगे क्या सोचा है.. यहीं भारत में रहने का इरादा है या फिर से विदेश!!!" 

" हाँ हाँ आदी... आगे के लिए क्या सोचा है विदेश जाओगे या यहीं रहोगे??? ", समीर ने उत्सुकता से पूछा। 

"तुम्हें क्या लगता है समीर... तुम ही बताओ..मैंने आगे क्या सोचा होगा ", 

 "ओऽऽऽ... तो तुम मेरी परीक्षा ले रहे हो हाँ आदी- समीर ने चुटीले अंदाज में उत्तर दिया। 

हाँऽऽऽ बस यही समझ लो, देखता हूँ कि तुम मुझे कितना जानते हो... आदित्य ने कहा। 

" चलो ठीक है.. कोई बात नहीं आदित्य... मैं बताता हूँ... जहाँ तक मैं तुम्हें जनता हूँ... तुम बड़े देशभक्त किस्म के इंसान हो... तो तुम मेरे हिसाब से अब विदेश तो नहीं जाओगे.... कहो ठीक कहा न..." समीर ने बड़ी दृढ़ता से अपनी दलील रखी। 

आदित्य ने हामी मेें अपनी गर्दन हिला दी। 

स्वयंबरा दोनों की बातों को बड़ी ध्यान पूर्वक सुन रही थी।
उसने पूछा," तो क्या तुमने सचमुच यहाँ रहने का इरादा पक्का कर लिया है??? "

" हाँ , अब मैं यहीं रहूँगा... माँ पिताजी के पास उनकी भी तो उम्र हो रही है.. मैं उनके साथ नहीं रहूँगा तो उनकी देखभाल करनेवाला कोई नहीं होगा ... और वैसे भी अपने देश की मिट्टी से बढ़कर क्या है. जिस मिट्टी ने जन्म दिया, पाला, पोसा उसे छोड़कर कहाँ जा सकता हूँ... अपने अपने ही होते हैं न समीर... बस अब यहीं कोई अच्छी कंपनी जॉइन करूँगा। और माँ पिताजी की सेवा करूँगा। " आदित्य ने दिल खोलकर अपने मनोभावों को व्यक्त कर दिया। 

तुमसे मिलकर, तुम्हारे विचार सुनकर बड़ा अच्छा लगा आदित्य.. तुम जैसे लोग आजकल विरले ही होते हैं ..वरना तो सब पैसों के पीछे भागते- भागते, अपनी अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के चक्कर में केवल अपनों को ही नहीं, खुद को भी भुला देते हैं..." स्वयंबरा ने अपना दृष्टिकोण रखा। 

" अच्छा आप दोनों बातें करिए, मैं अभी चाय बनाकर लाती हूँ... " और व‍ह चाय बनाने रसोई में चली जाती है। 

" कहो आदित्य, कैसी लगी मेरी स्वयं...", समीर ने स्वयंबरा के विषय में आदित्य की राय जाननी चाही। 

 गौर वर्ण, दुबली- पतली, छरहरी काया, सुंदर नाक नक्श,गायन- वादन में निपुण, व्यवहारकुशल, एक ही मुलाकात में किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर ले। इससे अधिक और क्या कोई चाहेगा किसी लड़की में।सर्वगुणसंपन्न की और क्या परिभाषा हो सकती है... स्वयंबरा अपने आप में परिपूर्ण नारी थी सो उसे नापसंद करने की सम्भावना ही कहाँ रह जाती थी। 

" अरे मेरे मित्र, तुम्हारी पसंद कभी गलत हो सकती है क्या... बहुत अच्छी लगेगी तुम दोनों की जोड़ी... मैं बहुत खुश हूँ तुम्हारे लिए ... वैसे शादी के बारे में क्या सोचा है... कब करने का इरादा है...।" आदित्य ने पूछा। 

"बस अब तुम आ गए हो, तो अब देर किस बात की.... हमारी शादी की जिम्मेदारी अब तुम्हें ही सम्भालनी है... कहो कोई ऐतराज तो नहीं है न... " समीर ने चुटीले अंदाज में कहा। 

" ये क्या कह रहे हो समीर... ऐतराज... ऐतराज किस बात का... तुम मुझे शर्मिंदा कर रहे हो... तुमने ऐसा सोच भी कैसे लिया... क्या तुम मुझे इतना ही जानते हो.. " आदित्य के चेहरे पर उदासी छा गई। 

" अरे रेऽऽ.. मेरे भाई, मैं तो मज़ाक कर रहा था यार ..... तुमने तो दिल पर ले लिया... मुझे माफ़ कर दो .. अब ऐसा कभी नहीं कहूँगा... तुम मेरा मजाक भी नहीं समझे...... अब बोलो क्या पैर पड़ूँ !!! "

" ठीक है.. पर दोबारा ऐसी बात कभी मत कहना... मुझे बहुत ग्लानि होने लगी थी कि मैंने ऐसा क्या कर दिया जो तुम्हारे मन में मेरे लिए ऐसे विचार उत्पन्न हुए। "

तभी रसोई से चाय, बिस्कुट और पकौड़े लिए स्वयंबरा ने कमरे में प्रवेश किया।

" लो आदी, चाय भी आ गई.." समीर ने कहा। 

" और क्या गपशप चल रही है दोनों दोस्तों में..." स्वयंबरा ने पूछा। 

 तत्पश्चात दोनों को चाय पकड़ाकर मेज़ पर ट्रे रख कर स्वयंबरा भी बग़ल में सोफ़े पर बैठ गई। 

" बस यूँ ही, इधर- उधर की बातें.. लो आदी तुम भी खाओ.. ।" समीर ने प्लेट से पकौड़े उठा कर आदित्य की ओर बढ़ाया । 

आदित्य को पकौड़ों का स्वाद बहुत अच्छा लगा। 

"पकौड़े तो बहुत अच्छे बने हैं भाभी.... सचमुच बहुत स्वादिष्ट.. आप तो बहुत अच्छी कुक भी निकलीं ।"

 'भाभी' - य़ह शब्द सुनते ही जैसे स्वयंबरा के दिल के तार झंकृत हो गए। उसके चेहरे की लाली देखते ही बनती थी। व‍ह थोड़ी शरमा गई। शायद इस शब्द को सुनने के लिए एक अर्से से उसके कान तरस रहे थे। 

" अच्छा समीर फटाफट तैयार हो जाओ.. मुझे तुम्हें कुछ दिखाना है... भाभी आप भी चलिए।" आदित्य ने कहा। 

 दिखाना है... क्या दिखाना है ... और कहाँ चलना है हमें ... आदित्य। " 

" चलो तो.. रास्ते में बताता हूँ... "आदित्य ने कहा। 

समीर और स्वयंबरा ने चकित होकर एक दूसरे की ओर देखा.. फिर न जाने क्या सोचकर तैयार होने लगे । 

अच्छा, मैं टैक्सी बुलाकर लाता हूँ.. तब तक तुम लोग भी बाहर आ जाओ। देर मत करना हाँ ... मैं बाहर तुम दोनों का इंतजार कर रहा हूँ...." कहते हुए आदित्य टैक्सी लेने बाहर चला गया।

" आदी, अब तो हम टैक्सी में भी बैठ गए... अब तो बताओ हम कहाँ जा रहे हैं... " समीर को जानने की उत्सुकता हो रही थी कि वे लोग आखिर जा कहाँ रहे हैं। 

" समीर, धैर्य रखो! बस थोड़ी देर में 
पहुँच जाएँगे..." 

आदित्य किसी न किसी बहाने उसे लगातार टालता रहा। 


"ये क्या आदी... ये तो मेरे घर का रास्ता है क्या तुम मुझे मम्मी पापा के पास ले जा रहे हो!!! नहीं आदी.. मुझे अब उस घर में लौटकर नहीं जाना है....इतने सालों में क्या उन्होंने कभी मेरी खैर - खबर ली....अरेऽऽ.. उन्हें तो य़ह भी नहीं पता कि मैं जिंदा हूँ या मर गया.. भइया टैक्सी घुमाइये.... जहाँ से आए थे वहीं वापस चलिए.. " समीर ने आक्रोशित होकर कहा। 

" नहीं भइया, आप चलते रहिए ... इसकी बात मत सुनिए.. यह अभी गुस्से में है.. " आदित्य ने टैक्सी चालक को गंतव्य की ओर बढ़ने का इशारा किया। 

" समीर, मुझे पता है कि तुम उनसे नाराज हो... और य़ह भी जानता हूँ कि चाचाजी भी उस समय गलत थे जिसका उन्हें आज बहुत अफसोस है... और तुम कैसे कह सकते हो कि उन्होंने य़ह भी जानने की कोशिश नहीं की कि तुम जिंदा हो या मर गए... आखिर सुबह उन्होंने ही तो मुझे तुम्हारा पता दिया न ।वो भले आकर तुमसे नहीं मिलते थे.. लेकिन तुम्हारी खोज - खबर हमेशा रखते थे.. और वो जिद्दी है तो क्या तुम जिद्दी नहीं हो... और मैं पूछता हूँ कि बेटा होने के नाते क्या तुमने कभी उनका हाल- चाल पता किया... नहीं न... तो तुम भी तो उतने ही दोषी हुए ना.. "

समीर आदित्य को बीच में काटते हुए रोषपूर्ण भाव में बोला, " आदी... मैं उनका इकलौता बेटा हूँ.. एक बार भी अगर वो मुझे बुलाते, तो क्या मैं उनके पास न जाता... बार- बार कहते तो थे कि जो भी धन - दौलत उन्होंने कमाई है.. सब हमारे लिए ही है.. तो क्या आपने बेटे की खुशी में उन्हें खुशी नहीं होनी चाहिए थी.. क्या जाता अगर मेरे माँगने पर कुछ रुपए मुझे दे देते तो.. अब बैठे रहे अपनी धन दौलत अपने पास लेकर... मुझे उनकी एक फूटी कौड़ी भी नहीं चाहिए और मुझे उस घर में भी नहीं जाना है ... " बोलते - बोलते समीर भावुक हो उठा। उसकी आँखें नम हो गईं।

" समीर, एक बार... बस एक बार चलकर उनसे मिल लो...जानते हो तुम्हारे गम में वे दोनों बहुत दुखी हैं.." आदित्य ने समीर को फिर समझाया। 

" तो क्या मम्मी भी दुखी हैं.. नहीं आदी.. वे दुखी होती तो क्या मुझसे मिलने न आतीं... "समीर ने आदित्य को प्रश्न भरी नज़रों से देखा । 

समीर, उन्हें चाचाजी ने अपनी कसम दी थी...तुम ही बताओ, अपने पति की कसम को तोड़कर कैसे आतीं तुम्हारे पास.. बस इसीलिए बेचारी भीतर ही भीतर तुमसे मिलने के लिए तड़पती रहती हैं... समीर कुछ भी हो माँ.. माँ ही होती है.. माँ की ममता जब तब हृदय की हूक बन तड़प उठती है... वे तुम्हारे लिए दिन रात रोती हैं। " समीर ने उसे समझाने का भरसक किया। 

" भाभी, आप ही समझाइए न समीर को... ये तो कुछ समझना ही नहीं चाहता।" आदित्य ने स्वयंबरा से उसे समझाने की विनती की। 

हाँ समीर, आदित्य भाई साहब बिलकुल ठीक कह रहे हैं... एक बार मिल लो ना... आखिर हर्ज ही क्या है... और अगर ठीक न लगे तो आगे तुम्हारी मर्ज़ी.. तुम जो निर्णय लोगे ... मैं तुम्हारे साथ हूँ...." स्वयंबरा ने समीर से कहा। 

 "अच्छा.... ठीक है.. अगर तुम दोनों की यही चाहते हो तो...." समीर ने अन्यमनस्कता से कहा । 

" लीजिए साहब, हम आ गए। " 

और ब्रेक लगकर टैक्सी समीर के बंगले के सामने रुकती है। 

" समीर, देखो हम पहुँच गए.. तुम दोनों यहीं रुको.. मैं बस अभी आता हूँ..." 

आदित्य ने बंगले के गेट से भीतर प्रवेश किया।दरवाज़ा खुला ही था तो व‍ह सीधे अंदर चला गया। 

 "अजी न जाने क्यों मन घबरा रहा है.. क्या समीर वापस लौटकर आएगा... आदित्य वादा करके गया है... भगवान उसे उसके मकसद में सफल करे..." 
समीर की माँ ने अपने पति से कहा। 

समीर के माता- पिता समीर को लेकर काफी चिंतित नजर आ रहे थे। आदित्य ने उनके पास जाकर एक एक करके उनके पाँव छुए। 

" प्रणाम चाचाजी, देखिए सुबह मैं आपसे वायदा करके गया था न कि समीर को वापस ले कर आऊँगा... मैं उसे ले आया हूँ.. वो बाहर खड़ा है अब आप सारे गिले शिकवे भुलाकर उसे क्षमा कर दीजिए.. और उन दोनों को अपने गले से लगा लीजिए..."

"दोनों... कौन दोनों ???" समीर की माँ ने पूछा। 
समीर के पिताजी के चेहरे पर भी प्रश्न वाचक चिह्न उभर आया । 

चाचीजी, आप की होनेवाली बहू भी बाहर आपका इंतजार कर रही है..." 

"बहू!!!! ये क्या कह रहे हो आदित्य.. ये कतई नहीं हो सकता... पता नहीं कौन से खानदान से है.. कैसी है..एक बार तो समीर मेरी नाक कटा ही चुका है... अब और क्या चाहता है हम से ..वो क्या सोचता है कि वो जैसे चाहे हमें नचा सकता है.... नहीं ऐसा कदापि नहीं हो सकता...बताओ समाज में क्या इज्जत रह जाएगी मेरी.. जाओ कह दो उससे कि मैं ऐसे ही किसी भी ऐरी- गैरी लड़की को अपने घर की बहू नहीं बना सकता... "

" चाचाजी, कृपया शांत हो जाइए.. आपकी तबीयत बिगड़ जाएगी.. इतना क्रोध अच्छा नहीं है चाचाजी ।" आदित्य ने उन्हें बीच में ही टोका। 

" चाचाजी, छोटा मुँह, बड़ी बात.. समाज के बारे में मत सोचिए.. समाज ने आखिर दिया ही क्या है आपको.. समीर के घर छोड़कर चले जाने के बाद क्या इस समाज ने आपको अपने बेटे का प्यार दिया... क्या वो खुशी आपको मिली जो समीर के आपके पास होने से मिलती...नहीं ना... चाचाजी लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है.. लोग चार दिन बातें करेंगे.. फिर अपने - अपने काम में जुट जाएँगे... यहाँ किसी के पास किसी के लिए समय नहीं..। "

" हाँ समीर तुम ठीक कह रहे हो.. "समीर की माँ ने कहा। 

" अजी चलिए न, चलकर समीर को ले आते हैं.. उसे देखने को मेरी आँखे तरस गई हैं.. आप ने कसम न दी होती तो मैं कब का..." 

" लेकिन समीर की माँ वो लड़की..." 

" चाचाजी, आप अगर उन्हें एक बार देख लेंगे न तो समाज का ख्याल आपके मन में कभी आएगा ही नहीं...मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूँ कि आपको वे बहुत पसंद आएगी.. " 

"चाचीजी... भाभी जी साक्षात लक्ष्मी का रूप हैं। सूरत और सीरत, किसी मामले में किसी से भी कम नहीं हैं। गले में मानो सरस्वती विराजमान हैं... चाचाजी बस आप एक बार उन्हें देख लीजिए.. मैं आपको यकीन दिलाता हूँ आपका गुस्सा कपूर बन उड़ जाएगा... आप नाज करेंगे अपने बेटे की पसंद पर.. "
आदित्य की इन दलीलों ने मानो दोनों के भीतर की ज्वार भाटा की तरह उठती गिरती उफनती लहरों को एकदम शांत कर दिया था। 

"समीर की माँ, अरे देख क्या रही हो!!!! आरती की थाली लाओ.. इतने दिनों बाद हमारा बेटा आया है बहू पहली बार क्या ऐसे ही हमारे घर में प्रवेश करेगी!!! "

"हाँऽऽ.. हाँ जी.. बस मैं अभी आई। "
माँ दौड़ी - दौड़ी पूजा घर से आरती की थाली लेकर बाहर आईं। 

खुशी के मारे समीर के माता- पिता के पाँव जमीन पर न पड़ते थे।मानो आज उनकी खुशियों को पर लग गए हों। आज कई वर्षों बाद उनके मन में अपने इकलौते बेटे के घर लौटने की उम्मीद जगी थी। वे दोनों तीव्र गति से दौड़े- दौड़े गेट के बाहर आए। 

अपने बेटे को इतने सालों बाद सामने देख माँ की आँखों से आंसुओं का सैलाब बह निकला और पिताजी के आँसू भी रोके न रुकते थे। उन्हें तो बहने का बहाना चाहिए, खुशी हो या गम दोनों ही स्थिति में छलकने लगते हैं।

समीर और स्वयंबरा की आरती उतारकर माँ पिताजी ने उन्हें अपने आलिंगन में भर लिया। आँखें थीं कि रुक ने का नाम ही नहीं ले रही थी और होंठ मुस्कुराने से बाज नहीं आ रहे थे। 
आज पूरा परिवार एक साथ था।कदाचित समीर और आदित्य को आज सच्ची खुशी मिली थी।

 इति 


बुधवार, 3 जून 2020

ठाकुर साहब



    जेठ का महीना था । रात्रि भोजन के बाद ठाकुरसाहब भी खा -पीकर सोने चले गए थे। किंतु इतनी गर्मी और उमस में भी वे न तो पंखा चला सकते थे और न ही ए.सी.। बिजली आपूर्ति दिन की पाली की थी सो दिन में आठ घंटे बिजली का निर्धारित कोटा पूरा हो चुका था। बेचैनी के कारण उन्हें ठीक से नींद नहीं आ रही थी । वे कभी इस करवट होते तो कभी उस करवट ।कभी पानी पीते;कभी उठकर कमरे में ही चहलकदमी करने लगते।परंतु नींद तो जैसे उनकी आँखों से कोसों दूर थी।सोने की हर कोशिश जब नाकाम हो गई तो उन्होंने लालटेन जलाई और बाहर की ताजी हवा में कुछ समय व्यतीत करने के इरादे से कमरे से बाहर निकल बरामदे में आ गए। काली गहरी रात; ऊपर से अमावस्या।चारों ओर नीरव सन्नाटा।दूर कहीं से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ से सन्नाटा टूटा।
तभी अचानक उन्हें अपने बगीचे में कुछ हलचल प्रतीत हुई।मानो बगीचे में कोई चल रहा हो । उन्हें पत्तियों के हिलने की आवाज सुनाई दी। परंतु हवा भी तो नहीं चल रही थी कि उस के जोर से पत्तियाँ हिल सकें।फिर क्या वजह हो सकती है ...
इसी आशंका में वे बरामदे से निकलकर बगीचे की ओर आगे बढ़े।
  उनके घर से एकदम लगकर ही उनका आम का बगीचा था सो लालटेन की रोशनी में वे धीरे- धीरे बगीचे में पहुँचे।
वहाँ का नजारा देखते उनके चेहरे की हवाइयां उड़ गईं।
पेड़ की शाखा से फाँसी का एक फंदा लटक रहा था जिसका गोल घेरा मँगरू की गर्दन को कसने के लिए बेताब था।
"ठाकुर बाबा ,आगे न बढ़ौ.....हमरे पास न आओ ... अरे,हम तंग आई ग हैं अपनी जिनगी से....आज हम लटक जाइब...तब जाइके माई -बाबू के करेजा के शांति मिली..." मँगरू गुस्से में बोला।

"अरे मंगरू...ये क्या कर रहे हो... पगला गए हो क्या बेटा ... निकालो अपने गले से ई फंदा...हमें बताओ कि क्या हुआ है... जो तुम इतना बड़ा कदम उठाने जा रहे थे... हम समझाएँगे तोहरे माइ बाबू को ... उ लोग मेरा बात थोड़ी न टालेंगे... भरोसा है न हमपर..." बात करते -करते ठाकुर साहब ने लालटेन को नीचे जमीन पर रख दिया और आगे बढ़कर  मँगरू की गर्दन से फंदे को निकालते हुए उसे समझाने लगे।
"अच्छा चल ,आज से तू मेरे साथ रहना । मेरे साथ रहने में कोई दिक्कत तो नहीं है ना???"
ठाकुर साहब उसे समझा बुझाकर अपने कमरे में ले गए। बात करते करते  कब भोर हो गई पता ही नहीं चला। मन में आशंका भी थी कि कहीं आँख लग गई तो मँगरू कुछ ऐसा वैसा न कर बैठे।  

ठाकुर साहब ने  अपने हाथों से चाय बनाकर मँगरू को भी पिलाई। और इधर उधर की बातें करके उसे उलझाए रखने का प्रयास करते रहे।

मँगरू अब भी मायूस -सा ही बैठा था। उसके भीतर एक उथल -पुथल मची हुई थी। ऐसी स्थिति में उसे एक क्षण भी अकेला छोड़ना उचित नहीं था। 

सत्रह साल का हट्टा कट्टा नौजवान मँगरू चौथी फेल था।पढ़ाई- लिखाई में उसका मन कभी लगा ही नहीं इसलिए उसने आगे की पढ़ाई ही नहीं की। बारह साल की कम आयु में उसके माँ बाप शादी करके उसके लिए दुल्हन भी ले आए थे। मँगरू के पिता  खेतारु ने आजीवन लोगों के खेतों में मजूरी करके किसी तरह से अपनी चार लड़कियों को पाला पोसा ।अब सब ब्याहने लायक भी हो गईं थीं। मँगरू के ब्याह में मिले दान- दहेज से बड़ी बेटी का तो ब्याह तो किसी तरह निबट गया। अब कोई दूसरा बेटा भी तो नहीं कि उसके दहेज से अगली लड़की का लगन निबटा सके। उसके  लिए अब तीन - तीन लड़कियों का बोझ  संभालना मुश्किल हो रहा था। मँझली भी बारह वर्ष की होने को आई थी। खेतारु ने एक जगह बात भी चलाई लेकिन लड़के वाले मोटर साइकिल पर अड़ गए । मँगरू  अपना पूरा दिन दोस्तों के साथ आवारागर्दी करने में बिता देता था। उसे अपने बाप की तरह दूसरे के खेतों में नहीं खटना था। कुछ बड़ा करना था।परंतु क्या, उसे पता नहीं था।
खेतारु और  माई  ने कितनी बार समझाया कि खेती में मजूरी नहीं करनी, तो कौनो नौकरी -धंधा ही पकड़ ले।एक अच्छी नौकरी के लिए मँगरू ने भी पिछले चार सालों में बहुत हाथ- पैर मारे पर चौथी फेल को नौकरी देगा कौन।  रोज माँ बाप के ताने -झगड़े सुन- सुनकर उसके कान पक चुके थे। उधर लड़के के घरवाले मोटरसाइकिल के लिए लगातार खेतारु पर दबाव बना रहे थे । इसलिए इसी हताशा में  मंगरु  अपने आप को समाप्त कर लेने जैसा कायरता भरा कदम उठाने जा रहा था।

 "मँगरू चलो तुम्हें कुछ दिखाता हूँ..."
  ठाकुर साहब उसे अपने तालाब की ओर ले गए ।
"यह तालाब देख रहे हो मँगरू ... मैं इसमें मछली पालन करना चाहता हूँ पर मुझे कोई होनहार लड़का नहीं मिल रहा है...तुमसे पूछना चाहता हूँ...
क्या तुम मेरे लिए और अपने लिए, यह काम करोगे...?? इस तालाब की एक चौथाई मछली तुम्हारी...."
मंगरु की तो जैसे बरसों से माँगी मुराद आज पूरी हो रही थी। वह ठाकुर साहब के चरणों में गिर पड़ा और उसकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली ।

"ठाकुर साहब आप नहीं जानते कि आपने मुझपर कितना बड़ा उपकार किया है। मैं जी जान लगा दूँगा। आप बस हुक्म दीजिये मुझे करना क्या होगा...??? "
ठाकुर साहब ने उसे अपने पैरों से उठाया और उसके  गमछे से उसके आँसू पोछते हुए  बोले, "चलो ,मैं तुम्हें कुछ रुपए देता हूँ ..तुम तुरंत जाकर अच्छी प्रजाति की मछलियों के बीज ले आओ।और हाँ जाते- जाते ट्यूबवेल की मोटर चला देना ताकि तालाब लबालब भर जाए।" कहते -कहते ठाकुर साहब ने अपने बटुए से निकाल कर कुछ रकम उसे थमा दी।

 "जी ठाकुर साहब...जैसा आप कहें... मैं बस यूँ गया और यूँ आया।"  रुपयों को देखकर मंगरु की आँखों में चमक बढ़ गई।
वह बाजार के लिए पैदल ही निकलने को उद्यत हुआ तो ठाकुर साहब ने उसे टोका,"अरे मँगरू, पैदल जाएगा तो लौटने में दोपहर हो जाएगी। जा वहाँ से मेरी साइकिल ले ले। "
"जी ठाकुर साहब ...",- मँगरू की खुशी आज सातवें आसमान पर थी।

यहाँ पूरे गाँव में हल्ला हो गया था कि मँगरू रात भर से लापता है । सूरज आसमान में चढ़ आया है और वह अभी तक घर नहीं लौटा। कुछ अनहोनी के डर से परिजनों का रो -रोकर बुरा हाल हो गया था। खेतारु ने उसे पूरे गांव में ढूँढ लिया पर उसका कहीं अता -पता नहीं था।
अब बस ठाकुर साहब का घर ही बाकी रह गया था जहाँ उसके होने की उम्मीद बिलकुल भी नहीं थी। फिर भी अनायास उसके कदम ठाकुर साहब के मकान की ओर बढ़ गए ।
 "ठाकुर साहब...  ठाकुर साहब..."
खेतारु ने बाहर से ही आवाज लगाई।
  
खेतारु की आवाज़ सुनकर ठाकुर साहब दरवाजा खोलकर बाहर आए,"अरे खेतारु, आओ ..आओ.. किसी काम से मँगरू को मैंने बाजार भेजा है..बस वो आता ही होगा। मुझे पता है तुम परेशान हो उसको लेकर।  वो रात भर मेरे साथ ही था । थोड़ा परेशान था तो मैं बस उसे समझा रहा था । तुम चिंता मत करना अब सब ठीक है।"
ठाकुर साहब बोल ही रहे थे कि उनकी नजर सड़क पर पड़ी। वो देखो उधर, मँगरू आ भी गया। 
 मँगरू को देखकर खेतारु की जान में जान आ गई। माथा पीट पीट कर वह वहीं जमीन पर बैठ गया।
 "अरे ठाकुर साहब... का बताई रात भर घर में केहू नहीं सोवा... एकरे चिंता में सबकर हालत खराब होइ गई है..और ई है कि बाजार घूम रहा है।"

"बाबू ...हम बाजार नहीं घूमत रहे...काम से गए रहे बाबू.... ठाकुर साहब कउनो देवता से कम नाही हैं बाबू .... ई हमके नोकरी पर रखें हैं। आज से सब  दुख कटी जाइ बाबू... ठाकुर साहब के गोड़े गिरा बाबू.... नहीं त आज का नहीं हो गया होता..."
 खेतारु भौचक्का हो कभी ठाकुर साहब को देखता तो कभी मंगरु को। 
नौकरी की बात सुनते ही वह तुरंत उनके पावों में गिर पड़ा।  
ठाकुर साहब ने झुककर दोनों हाथों से  थामकर उसे  उठाया,"अरे खेतारु  यह क्या कर रहे हो, अरे, इसमें मेरा भी तो स्वार्थ है न.. नहीं समझे... मैं बताता हूँ... देखो.. मुझे भी तो अब नया बिज़नेस शुरू करना था न ...सो इसे नौकरी मिल गई और मुझे  काम संभालने के लिए आदमी...तो हुआ न एक पंथ दो काज।"

"ठाकुर साहब आप धन्य हैं...उपकार कइके भी कउनो घमंड नहीं... आज से हम तोहार गुलाम होई गए..."खेतारु ने भावातिरेक में अपनी कृतज्ञता व्यक्त की।

"अरे खेतारु ,हमका कोई गुलाम नहीं चाहिए.... मँगरू ले जा अपने बाबू को घर ...देख नहीं रहा उनका रो -रोकर बुरा हाल हुआ है। जा अब खाना पीना खाकर दोपहर तक आ जाना तालाब पर।" 
 ये थे ठाकुर कामता प्रसाद सिंह। जौनपुर जिले के एक छोटे से गाँव के अकेले ठाकुर घराने के मँझले पुत्र।

 ठकुरान न होने के नाते उनका घर गाँव में सबसे अलग था । उनके घर के सामने बड़ा- सा द्वार, सौ कदम की दूरी पर एक ओर आम का बगीचा तो दूसरी ओर बड़ा- सा तालाब ...
उनका घर या कह लीजिये एक बड़ा -सा पंद्रह कमरों का पक्का मकान, जो दो किलोमीटर दूर से ही नजर आता था। मुम्बई शहर में जमा जमाया अपना कारोबार था। उन्हें ईश्वर की ओर से एक पुत्ररत्न और सात कन्या रत्नों की प्राप्ति हुई थी। सभी की पढ़ाई- लिखाई शादी ब्याह कर लेने के बाद ठाकुर साहब अपने कारोबार को अपने पुत्र को सौंप कर अब अधिकांश समय गाँव में ही बिताते थे। वे अक्सर कहा करते कि अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर मैं अपना बाकी का जीवन अपनी जन्मभूमि पर ही बिताऊँगा। उन्हें अपनी जमीन से बड़ा लगाव था।

 ठाकुर साहब का बचपन बड़ी गरीबी में गुजरा था। उनके पिता ने अपने बड़े बेटे की पढ़ाई और लड़की की शादी के खर्चों को सम्हालने के लिए अपनी सारी जमीन रेहन रख दी थी। जिसे एक- एक करके बाद में ठाकुर साहब ने छुड़वा लिया । अपने छोटे भाई को इंजीनियर बनाया। उनके बच्चों की शादी का खर्च भी उन्होंने  ही वहन किया। अपना पक्का मकान बनवाया।तालाब खुदवाया।
ठाकुर साहब गाँव में होने वाले प्रत्येक सांस्कृतिक कार्यक्रम में बढ़चढ़कर भागीदारी निभाते। सबसे ज्यादा चंदा उन्हीं के घर से जाता था। वे जब भी शहर से  गांव आते न जाने  कैसे लोगों को उनके आने की खबर लग जाती और दो चार लोग उन्हें लेने स्टेशन पहुँच जाते।

ठाकुर कामता प्रसाद सिंह जीवनपर्यंत दूसरों के लिए ही जिए। कोई आर्थिक जरूरत आ पड़ने पर जब कोई और उपाय न सूझता तो लोगों को ठाकुर साहब याद आते और वे शहर से ही रुपया मनीऑर्डर कर देते।अपने जीवन में उन्होंने न जाने कितनों का भला किया।शायद उन्हें भी इसका अंदाजा नहीं था। वे दिया हुआ कर्ज कभी वापस नहीं माँगते थे परंतु जो सक्षम होता उससे वे अपने रूपयों का तकादा जरूर करते ताकि लोगों को मुफ्त की आदत न पड़ जाए। शहर में सूट बूट में रहने वाले ठाकुर साहब जब गाँव आते तो शर्ट - पैंट के साथ गर्दन में गमछा भी लटका लेते ताकि उनसे बात करने में किसी को कोई असहजता न महसूस हो। आखिर कपड़े भी अमीरी - गरीबी का फर्क करते ही हैं। आसपास के गाँव के कई लोग उनके कर्ज तले दबे थे। पर उन्होंने कभी किसी पर अपनी धौंस नहीं जमाई। 

 जब तक ठाकुर साहब गाँव में रहते और किसी के घर में कोई झगड़ा या घरेलू कलह होती तो पंचायत नहीं ठाकुर साहब दिखते। लोग अपना अपना पक्ष उनके सामने रखते। उनका निर्णय पंचों को भी मान्य होता।उसके बाद किसी और बहस की गुंजाइश ही न बचती।
ठाकुर साहब ने अपने जीवन में रुपए पैसे ही नहीं बल्कि खूब सम्मान भी कमाया।
वे तो अब नहीं रहे परंतु लोग उन्हें इतना प्यार करते थे कि उनकी मृत्यु पर उनके अंतिम संस्कार के लिए दस- दस बसें भरकर बनारस के घाट पर पहुँची थीं। पूरा गाँव महीनों विलाप करता रहा, "ठाकुर साहब आपने पूरे गाँव का दीया बुझा दिया। आप हमें अकेला छोड़कर कहाँ चले गए। हमें अनाथ कर दिया आपने।"


वह पीला बैग

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