सुबह के दस बज रहे थे. नाश्ता करके मेरे पति, मैं और दोनों बच्चे सब अपने अपने काम में व्यस्त हो गए थे. तभी फोन की घंटी बजी। ट्ट्रिंग...ट्ट्रिंग...ट्ट्रिंग...ट्ट्रिंग...फोन मेरे पास ही था तो मैंने झट से फोन उठा लिया।
दूसरी ओर से आवाज आई,"हैलो..हैलो ,अवंतिका !"
"हाँ...हैलो... कौन, बीनू दीदी, नमस्ते...!"दीदी ने बहुत दिनों बाद फोन किया था इसलिए उनसे बात करने के लिए मैं बहुत उत्सुक थी। जब कभी उनकी हमारी मुलाकात होती है तो हम बड़ी गर्मजोशी एक दूसरे के गले लगते हैं।
"ख़ुश रहो अवंति। कैसी हो?"
" सब ठीक है दीदी और आपके यहाँ क्या हाल चाल है ? घर पर सब कैसे हैं?.. जीजू, बच्चे??? "
" सब कुछ ठीक है अवन्ती। आज तुम्हारे बेटे का बरिक्षा(सगाई) है !"-बड़ी गंभीर मुद्रा में उन्होंने कहा।
मुझे समझ नहीं आया, आखिर दीदी यह क्या कह रही हैं ? मेरे बेटे का बरिक्षा और मुझे ही नहीं पता ? मैं अचकचा गई।
शंकित मन से मैंने पूछा - 'मेरे बेटे का बरिक्षा ?दीदी आप यह क्या कह रही हैं. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है. मेरी घबराहट को वे तुरंत भांप गई। बोली, "अवंतिका तुम तो घबरा गई अरे मैं तो मजाक कर रही थी. तुम तो ख्वामखां घबरा गई. अरे मेरा बेटा और तुम्हारा बेटा बंँटा है क्या ? मेरे बेटे रिक्की का बरिक्षा है !"" "ओह! तो यह बात है! अब समझी दीदी ।क्या दीदी... आप भी बड़ा मजाक करती हैं. आपने तो मुझे डरा ही दिया था। "
आज दीदी बड़ा अपनापन जता रही थीं। हमारे निवास स्थान से कुछ चंद मिनटों की दूरी पर रहती हैं परंतु न कभी आना और न जाना।कभी हाल चाल जानने की कोशिश भी नहीं की। परंतु मिलने पर या आमने सामने होने पर उनका रवैया अलग ही होता है।जैसे दो पक्की सहेलियाँ, जो न जाने कितने अरसे के बाद एक दूसरे से मिली हों और ढेरों बातें करने को अकुला रही हों।
" दीदी, बहुत बहुत बधाई ! कब है बरिक्षा ?"
"आज ही है ..., दोपहर १२ बजे ।"
"क्या?? दीदी... ,मुझे अब बता रही हैं ?इस समय साढ़े दस बज रहे हैं। इतनी जल्दी मैं कैसे आ पाऊँगी ?"
" तुम्हारे और मेरे घर में दूरी ही कितनी है अवंतिका ? अरे दस मिनट का भी रस्ता नहीं है , आराम से पहुँच जाओगी !"
"लेकिन दीदी.. अचानक से कैसे ? पहले से कुछ बताई होतीं तो ठीक होता न!! "
दीदी सफाई देने लगी - "अरे अवंतिका, क्या बताऊँ तुमसे , लड़की वाले अचानक प्रोग्राम बना लिए, कि आज ही बरिक्षा कर लिया जाए !"
"ऐसा क्यों दीदी ?"- मैंने अचरज से प्रश्न किया तो बोली - " वे लोग यहाँ के नहीं हैं न, एक दिन पहले ही मुम्बई आए हैं , होटल में रुके हैं , कल चले जाएंगे ।"
मन में कई बातें उमड़ने लगी- ऐसे शुभ अवसर पर कोई ऐसे निमंत्रण देता है क्या ! शायद हमें बुलाना नहीं चाहते हो, फिर, शायद समाज के बारे में सोच- विचार किया हो कि दुनिया क्या कहेगी ? आखिर सात - आठ किलोमीटर की दूरी पर ही तो है हम लोग, फिर भी क्यों नहीं बुलाया आदि आदि ?
"अच्छा.... तो दीदी, तब कार्यक्रम कब तक चलेगा ?"
"बस, यही दो - चार घंटे का कार्यक्रम है । जान लो कि चार - पांच बजे तक सब निबट जाएगा ।"
जिस तरह से उन्होंने मुझे निमंत्रण दिया मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा इसलिए अपने न पहुंच पाने की वजह बताते हुए मैंने भी असमर्थता जाहिर कर दी -
"दीदी दरअसल,आज हमें बाहर जाना है। मेरी बिटिया को इनाम मिलने वाला है। बारहवीं की परीक्षा में 95% लाने के कारण समारोह में उसे सम्मानित किया जाएगा है । इसलिए वहाँ जाना जरूरी है ।"
दीदी का दिल रखने के लिए मैंने उन्हें बेटी के कार्यक्रम के बारे में जानकारी देना सही समझा, अन्यथा उन्हें लगता कि मैं बहाने बना रही हूँ।
मेरी बात सुनकर मानो दीदी के पास कोई रास्ता नहीं था सिवाय यह बोलने के कि बेटी के इस कार्यक्रम में शामिल होना भी जरूरी है।
फिर न जाने क्या सोचकर मैंने तय किया कि सम्मान समारोह अगर जल्दी निबट जाएगा तो दीदी के यहाँ बरिक्षा में भी शामिल हो जाएँगे।
परंतु सम्मान समारोह का वेन्यू बहुत दूर था , इसलिए घर पहुँचते पहुँचते रात के बारह बज गए। इसलिए हमने तय किया हम अगले दिन उनके घर जाएंगे ताकि उन्हें कुछ कहने का मौका न मिले, नहीं तो जीवन ताने मारेंगी। बंदिनी था उनका असली नाम। लेकिन प्यार से सब उन्हें 'बीनू' बुलाते थे। वे मेरी बुआ की बड़ी लड़की है। नातिन होने के कारण दादी की बहुत चहेती थी। मेरे पिताजी भी उनसे बहुत प्यार करते थे।
बीनू दीदी के पति नारंग जीजू ने आज से तकरीबन बीस साल पहले पिताजी से पैंतालीस हजार रुपये यह कहकर उधार मांगे थे कि एक महीने में लौटा देंगे। बिना ना - नुकुर किए पिताजी ने झट से पैसे निकाल कर दे दिए थे। पर तीन महीने गुजर जाने के बाद भी जब उन्होंने रूपए नहीं लौटाए तो पिताजी ने उन्हें फोन किया, नारंग जीजू ने कुछ और दिनों का समय मांगा। पिताजी ने उनकी बात मानकर उन्हें कुछ और समय दे दिया। इस तरह वे कोई न कोई बहाना बनाकर हर बार समय मांगते रहे और पिताजी बड़ा दिल करके उन्हें समय देते गए। इस बीच हमारे घर में न जाने कितनी सगाईयाँ और शादियाँ हुईं। कभी रामायण का पाठ, कभी कोई अन्य कार्यक्रम।हर बार पिताजी जरूरत पड़ने पर नारंग जीजू से पैसे माँगते रहे। दीदी से भी उन्होंने कई बार अपने दिए हुए पैसे का तकादा किया। पर हर बार वही ढाक के तीन पात। उन्हें अपने उधार दिए हुए पैसे नहीं मिले। नारंग जीजू ने उन पैसों से गांव में जमीन खरीदी थी, जिसकी कीमत आज पचास- साठ लाख हो गई है। परंतु उन्होंने उधार के वह पैंतालीस हजार आज तक नहीं लौटाए। इस वजह से हमारे रिश्तों में धीरे धीरे खटास आ गई। बीनू दीदी ने भी नारंग जीजू का ही साथ दिया। सबसे कहती फिरती थी कि केवल पांच हजार रुपये लौटाने बाकी हैं। बाकी के पैसे उन्होंने मामाजी को लौटा दिए हैं।
खैर, रास्ते की धूल मिट्टी फाँकते हुए अगले दिन मैं उनके घर पहुँची। यहाँ यह उल्लेख करना जरूरी है कि मैं उनके उस घर में गई जो असलियत में कभी नारंग जीजू के मामा का घर था। हमारे सारे रिश्तेदारों को यह बात बहुत अच्छी तरह पता थी कि वह घर भी उन्होंने अपने मामा को धोखा दे कर, कागजों में कुछ हेरफेर करके अपने नाम करवा लिया था।
उनके घर जाने से पहले ही मैंने उन्हें फोन करके बता दिया था कि मैं शाम के पांच बजे तक आऊंँगी ताकि उनकी दोपहर की नींद में कोई खलल न पड़े।
जो सोचा था, वही हुआ। जब मैं वहाँ पहुँची, दीदी सो रही थी। दरवाजा रिक्की ने खोला। तुरंत पहचान गया। दीदी को जाकर सूचना दे आया कि अवंतिका मौसी आई हैं।
दरवाजा खुलते ही मैं सीधा अंदर वाले कमरे में चली गई। मेरी अवाज सुनकर दीदी आँखें मीचते हुए उठी। मुस्कुराते हुए तुरंत उठकर मुझसे गले मिली।
मैंने उन्हें बेटे के रिश्ते के लिए मुबारकबाद दी। उनके चेहरे पर एक हल्की- सी मुस्कान बिखर गई।
मुझे वहीं बेड पर बैठने के लिए कहा। थोड़ी ही देर में रिक्की पानी और बालूशाही ट्रे में रखकर ले आया। इधर - उधर की बातें होने लगीं। लड़की कहाँ की है ? क्या करती है? कितनी पढ़ी- लिखी है ? आदि।
"दीदी, अपनी होनेवाली बहू की तस्वीर तो दिखाइए। उन्होंने तुरंत रिक्की को आवाज दी। रिक्की, मौसी को लड़की की तस्वीर दिखाओ। रिक्की ने मोबाइल को ऑन करके फोटो गैलेरी खोल दी और फोन मेरे हाथ में देकर बाहर चला गया।
" लड़की सुंदर है, दीदी। नाक - नक्श भी काफी अच्छा है।"
" हाँ, लेकिन रंग तुम्हारे जैसा है ।थोड़ा रंग दबा हुआ है । "
" तो क्या मैं खराब हूँ दीदी ? " मैंने आश्चर्य जताया।
"नहीं , लेकिन मुझसे कम गोरी है, बस वही खटक रहा है ।"
दीदी के लिए गोरा होना ही सुंदरता का मापदंड था।
दीदी अपनी शादी की बातें बताने लगीं कि उनकी सास ने उनके रिश्ते के समय कहा था कि लड़की गोरी होनी चाहिए। नाक- नक्श भले ठीक न हो, तो भी चलेगा। मैंने उनसे कहा," दीदी, अब जमाना बदल गया है।बड़े अनमने ढंग से उन्होंने भी हामी भरी । फिर शुरू हुआ सिलसिला उन तोहफों को दिखाने का जो उन्हें बारिक्षा में मिला था।
दीदी अपनी शादी की बातें बताने लगीं कि उनकी सास ने उनके रिश्ते के समय कहा था कि लड़की गोरी होनी चाहिए। नाक- नक्श भले ठीक न हो, तो भी चलेगा। मैंने उनसे कहा," दीदी, अब जमाना बदल गया है।बड़े अनमने ढंग से उन्होंने भी हामी भरी । फिर शुरू हुआ सिलसिला उन तोहफों को दिखाने का जो उन्हें बारिक्षा में मिला था।
घर के सभी लोगों के लिए कपड़े, पर्फ्यूम, कंघी, तेल, साबुन, साड़ी, सूट के कपड़े आदि सबकुछ तो चढ़ाया था लड़की वालों ने बरिक्षा में। मंदिर की दराज में रखा पंद्रह लाख का वह चेक भी दीदी ले आईं जो लड़की वालों ने नारंग जीजू के नाम पर काटा था।
तभी जीजा जी ने कमरे में प्रवेश किया। मैंने उन्हें भी रिश्ता तय होने की बधाई दी। बड़े अनमने भाव से उन्होंने मेरी बधाई स्वीकार की। मुझे थोड़ा अजीब लगा किंतु मैंने उस बात को वहीं छोड़ देना उचित समझा। रिक्की के अलावा उनकी दो बेटियांँ भी है जो उस समय घर पर नहीं थी। वे दोनों ऑफिस गई थी। बड़ी बेटी है दृष्टि, जिसने एम.बी.ए. किया है और आज वह एक बड़ी बैंक में एक अच्छे पद पर कार्यरत हैं। दूसरी बेटी है दिव्या जिसने सिविल इंजिनियरिंग की डिग्री हासिल की है, वह भी एक अच्छी कंपनी में काम कर रही है। दोनों का वेतनमान भी काफी अच्छा है। दोनों विवाह योग्य हो गई हैं। सो, मैंने उनकी शादी की बात भी छेड़ दी।
नारंग जीजू कहने लगे, "अभी दोनों शादी नहीं करना चाहती। कहती हैं कि जब हम अपने पैर पर अच्छे से खड़े हो जाएँगे, थोड़ा सैटल हो जाएँगे, तभी शादी करेंगे।" फिर कुछ सोचते हुए बोले, "वैसा लड़का भी तो मिलना चाहिए कि जिसको दहेज न देना पड़े। अरे भई ! हमने अपनी लड़कियों को इतना पढ़ाया - लिखाया है तो क्या दहेज देंगे! इंजीनियरिंग और एम. बी. ए. कराने में हमने लाखों रुपये खर्च कर दिए हैं।"
तभी मैंने उनकी बात काटते हुए कुछ मजा़किया लहजे में कहा," जीजा जी ! अब आप भी तो बेटे के लिए इतना दहेज ले रहे हैं! फिर बेटी को दहेज क्यों नहीं देंगे !"
"हमको कुछ मिल थोड़े ही रहा है, अब खुद ही हिसाब लगा लो ! छः सात लाख रुपये तो शादी में ही खर्च हो जाएँगे। फिर बचेगा ही क्या ? बाकी रुपए सर - सामान, कपड़े- लत्ते, गहना - गुरिया में ही खर्च हो जाएँगे। वे लोग इसके अलावा और कुछ नहीं दे रहे हैं, घर का कोई सामान नहीं मिलने वाला है।"
मैं समझ गई कि जीजाजी ख़ुश नहीं थे।उनके चेहरे पर खिन्नता भाव स्पष्ट झलक रहे थे।
लड़की वालों ने न जाने किस तरह से अपनी लड़की की शादी के लिए पैसे जुटाए होंगे। अपने खून पसीने की कमाई लगा दी होगी पर जीजा जी के चेहरे पर मुस्कान नहीं थी।
कितना दोहरा मापदंड है। एक तरफ उन्हें अपनी बेटी के लिए ऐसा लड़का चाहिए, जो बिल्कुल दहेज की मांग न करे और दूसरी ओर बेटे को दहेज में मिल रहे पंद्रह लाख रुपये भी कम लग रहे हैं। ऊपर से लड़की भी पढ़ी- लिखी पोस्ट ग्रेजुएट और सुंदर।
शाम के सात बज रहे थे। अँधेरा हो रहा था इसलिए मैं ने भी उनसे जाने की अनुमति ली। निकलते - निकलते बीनू दीदी ने मेरे हाथ में एक थैला थमा दिया। मैंने लेने से इनकार कर दिया, पर उनके बहुत आग्रह करने पर मना नहीं कर सकी। घर पहुँची तो सोचा खोल कर देखे कि आखिर दीदी ने इतने प्यार से दिया क्या है !
दो केले, एक संतरा, एक अनार, एक बालूशाही और एक बर्फी देखकर मुझे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ कि दीदी ने बड़ा दिल करके मुझे ये दिया है ! बच्चे भी देखकर हंँसने लगे, "मम्मी, मंदिर के पुजारी जी ने प्रसाद दिया है क्या ?"
बच्चों की बातें सुनकर पति देव के चेहरे पर भी मुस्कान फैल गई। वे भी उनकी फितरत को अच्छी तरह से जानते थे, सो, वे कुछ न बोले।मैं भी क्या कहती ? निशब्द थी, कुछ बोल न पाई।
अगले दिन जब हाल - चाल लेने के लिए मेरी मम्मी का फोन आया तब पता चला कि वाहवाही लूटने के लिए जीजा जी ने सब जगह फोन करके यह खबर फैला दी थी कि उनके बेटे को दहेज में पंद्रह लाख मिल रहे हैं। यहाँ तक कि जीजा जी पिताजी को मेरे आने की सूचना भी दे चुके थे।
मम्मी ने उन पंद्रह लाख रुपयों की बात छेड़ी कि क्या मैंने वह चेक देखा है जिसकी बात नारंग जी कर रहे थे। मैंने भी मम्मी को पुष्टि कर दी कि मैंने चेक अपनी आँखों से देखा है, जीजू के नाम पर ही है वह चेक।
माँ चौंक गई कि रिक्की अब तक कहीं नौकरी पर भी नहीं लगा है, एम. ए, बी. एड. ही तो है, शिक्षक बनकर कितना कमा लेगा।
और क्या देखकर लड़की वाले उसे पंद्रह लाख दहेज दे रहे हैं ? बातों बातों में मम्मी ने कहा कि नारंग जीजू मेरे पिताजी को बता रहे थे कि लड़की अपने घर की इकलौती है। माता - पिता के अलावा उसका और कोई नहीं है। लड़की के पिता ठेकेदारी करते हैं। पैसों की कोई कमी नहीं है और माता - पिता के बाद सब कुछ उस लड़की और रिक्की का ही होगा। जैसे नारंग जी के दादाजी को नेवासा(ससुराल की जायदाद ) मिला था। वैसे ही रिक्की को भी अपने ससुराल की सारी जायदाद मिलेगी।
मेरे आश्चर्य का ठिकाना न था कि कोई व्यक्ति इतना स्वार्थी कैसे हो सकता है ? क्या उन्होंने सचमुच इतना हिसाब - किताब लगाया होगा ? क्या नारंग जीजू ने इतना सब कुछ सोचकर, पूरा आकलन करने के बाद यह रिश्ता मान्य किया था ?
कभी- कभी लगता है कि क्या समाज ऐसे बदनियत और स्वार्थी लोगों से कभी छुटकारा पा सकेगा ?
ब्लॉग बुलेटिन में शामिल करने के लिए शुक्रिया शिवम जी 🙏 🙏 🙏
जवाब देंहटाएंपूरी कहानी को बहुत ध्यान से पढ़ी ,और सोचने लगी समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है ,यही कारण है रिश्तों में दूरियां बढ़ने लगी है ,एक अच्छी कहानी के लिए आपको बधाई हो ,
जवाब देंहटाएंसमीक्षा के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ज्योति जी. हृदय तल से अपने ब्लॉग पर आपका स्वागत करती हूँ. सादर अभिवादन 🙏
हटाएंसुधा दी, यहीं कड़वी सच्चाई हैं कि आज भी दुनिया में ऐसे स्वार्थी लोग हैं। सुंदर कहानी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया 🙏 🙏
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