शुक्रवार, 29 मई 2020

कौन गलत औऱ कौन सही

  ससुराल में सभी बड़ों के आगे माथे पर पल्ला रखने का रिवाज था.  यदा - कदा सिर से पल्ला खिसकने पर सास टोक देती। कहती, "देखो बहू,  हमारे सामने भले ही सिर न ढको, पर पापाजी के सामने जरूर ढक लिया करो।


घर की रसोई में ही छोटा- सा मंदिर था।एक दिन सुबह नहा - धोकर ससुर जी रसोई घर में पूजा करने आये। उन्हें देखते ही गैस पर रोटी सेंकते हुए बहू ने सिर पर झट से पल्ला रख लिया। ससुर जी तमतमा गए। बोले "अभी कुछ उल्टा- सीधा हो गया तो दुनिया वाले कहेंगे कि बहू को जलाकर मार दिया।"
उस दिन उन्होंने बहू को गलत तो ठहरा दिया पर कभी उससे यह नहीं कहा कि सिर पर पल्ला न रखा करे।
स्व लिखित :

सुधा सिंह व्याघ्र 📝

(100 शब्दों की कहानी)


बुधवार, 27 मई 2020

एक छोटा -सा घर हो



र स्त्री का सपना होता है कि उसका अपना एक घर हो जहाँ सब खुशी खुशी रहे। उसके घर के इर्दगिर्द ही उस की दुनिया होती है। विवाह के पहले शर्मिष्ठा ने भी ख़्वाब देखे थे कि वह अपने ससुराल में अपने सास - ससुर, पति और बच्चों के साथ खुशी - खुशी रहेगी परंतु उसका यह ख़्वाब जल्द ही चकना चूर हो कर बिखर गया। घर में प्रतिदिन किसी न किसी बात को लेकर क्लेश होता रहता था। ससुराल में उसकी कद्र किसी नौकरानी से ज्यादा न थी।

पानी जब सिर से ऊपर चला गया तो अनूप ने तय किया कि अब वह शर्मिष्ठा को लेकर घर से अलग हो जाएगा। सास ससुर ने भी रोकने की कोशिश नहीं की। उन्हें लगा कि अभी नया - नया जोश है घर से बाहर कुछ दिन रहेंगे तो अ‍कल ठिकाने आ जाएगी। आटे दाल का भाव मालूम पड़ेगा तो लौटकर आ ही जाएँगे। एक ओर अहम की लड़ाई थी तो दूसरी ओर हक की। कोई झुकने को तैयार नहीं था। अनूप भी शर्मिष्ठा को उस घर में नौकरानी की तरह रात दिन खटते हुए नहीं देख सकता था। सो उन्होंने किराए पर रहना ठीक समझा।

अनूप और शर्मिष्ठा के घर जब रोहित पैदा हुआ तो खर्चे भी बढ़ गए। घर के किराए, बिजली, पानी, राशन इन सब में अनूप की पूरी आमदनी खर्च हो जाती और महीने का अंत होते होते ठन - ठन गोपाल। इस बीच ससुराल में देवर और ननद की भी शादियाँ हुईं। परंतु ससुर और सास के रवैये में ज़रा भी अंतर नहीं आया था। देवरानी के साथ भी बुरे व्यवहार के कारण देवर भी अपनी पत्नी के साथ अलग रहने लग था।

ननद प्रियंका की शादी के बाद उसके पारिवारिक मामलों में भी शर्मिष्ठा के सास ससुर इतनी ज्यादा दखलंदाज़ी किया करते थे कि ननद की भी अपने पति और अपने सास - ससुर से नहीं बनती थी। वे लोग अपनी बेटी प्रियंका को बेहद चाहते थे इसलिए उसकी हर सही - गलत बात में झगड़ने के लिए प्रियंका के घर पहुँच जाते थे। उसके पति निर्मल को बात- बात में डांटते धमकाते थे।

इनकी दखलअंदाज़ीयों के कारण प्रियंका के ससुराल में कलह इतनी बढ़ गई कि ससुर जी ने प्रियंका के नाम से अपने सामने वाली बिल्डिंग में ही एक घर ख़रीद कर उसके नाम कर दिया। और दोनों बेटों को इसकी भनक तक न लगने दी। परंतु यह बात शर्मिष्ठा की देवरानी से ज्यादा दिन तक छिपी न रह सकी । वह पास में ही रहती थी सो उसके पड़ोसियों से उसे यह बात पता चल गई। बातों बातों में उसने शर्मिष्ठा को भी यह बात बता दी। इधर शर्मिष्ठा और अनूप को अपने घर से अलग रहते - रहते तकरीबन बीस साल से ज्यादा का वक्त बीत चुका था। परंतु लाख कोशिशों के बावजूद वे अपने घर के लिए डाउन पेमेंट भी जमा नहीं कर सके थे। एक दिन शर्मिष्ठा ने हाल - चाल लेने के लिए अपनी सास को फोन किया तो बातों बातों में उन्होंने ताव से कहा, "क्यों नहीं तुम लोग अपना घर ले लेते। कितने दिनों तक किराए के मकान में रहोगे। प्रियंका को देखो, आज इतने बड़े घर की मालकिन है। तुम लोगों से छोटी है। पर अपने दम पर उसने अपना घर भी बना लिया है। " शर्मिष्ठा सारी बातें समझ रही थी पर उसने प्रत्यक्ष होकर नहीं कहा कि प्रियंका ने घर कैसे ख़रीदा है, यह बात वह जानती है।

शर्मिष्ठा बहुत नेक स्त्री थी वह किसी प्रकार की कलह या झगड़ा - झंझट नहीं चाहती थी इसलिए उसने प्रियंका के घर की बात वहीं छोड़ दी और अपना घर न ख़रीद पाने के पीछे की अपनी सारी मजबूरियाँ गिना दी "हाँ मम्मी जी, काश, प्रियंका की तरह मेरा भी अपना घर हो जाता तो कितना अच्छा होता न।मम्मीजी.. आपको तो पता ही है कि घर की डाउन पेमेंट के लिए एक मोटी रकम चाहिए। बस उसका ही इंतज़ाम नहीं हो पा रहा है। हम इतने सालों से प्रयास कर रहे हैं। और मम्मी जी.. गहने वगैरह भी तो... इतने नहीं हैं कि उसको बेच कर उतनी रकम जमा हो जाए।"

शर्मिष्ठा ने सोचा इन्होंने प्रियंका को एक घर ख़रीद कर दे दिया तो हमें तो डाउन पेमेंट की रकम तो दे ही सकते हैं।

" मम्मीजी बस वहीं... डाउन पेमेंट पर बात अटक रही है। बाकी किश्त तो हम भर ही लेंगे। हर महीने इतना किराया भर - भर कर हमारी तो कमर ही टूट गई है। किश्त भरने में हमें कोई दिक्कत नहीं होगी। जैसे किराया भरते हैं वैसे किश्त भी भर देंगे। "

"शर्मिष्ठा, पापा जी आ गए हैं। खाना माँग रहे हैं। चलो रखती हूँ बाद में बात करेंगे और सब ठीक है न। "

"हाँ मम्मी जी, सब ठीक है। अच्छा नमस्ते मम्मीजी अपना ख्याल रखियेगा।" बात पूरी भी नहीं हो पायी थी कि फोन कट गया।

शर्मिष्ठा ने निराश होकर फोन बगल में रख दिया। आज फिर वही हुआ था जो इससे पहले भी कई बार हो चुका था। घर की बात हर बार निकाल कर मम्मीजी यही जताने की कोशिश करती कि हमसे दूर रहकर भी तुमने क्या कर लिया। मानो चिढ़ा रही हों।

अनूप अपने माता - पिता को भली भांति जानता था इसलिए वह बामुश्किल ही कभी उनसे बात करता था।

शर्मिष्ठा जब भी डाउन पेमेंट की बात करती तो पापाजी खाना माँगने लगते। आज फिर एक बार शर्मिष्ठा अपने घर का सपना चूर - चूर होते देख रही थी ।



रविवार, 24 मई 2020

आँखों का तारा

   
पच्चीस वर्षीय मैकेनिकल इंजीनियर अनमोल खुशी से उछलता हुआ जैसे ही घर के भीतर दाखिल हुआ, माँ... माँ.. कहते हुए अपनी बूढ़ी माँ के गले से लिपट गया।

   आज उसकी प्रसन्नता सातवें आसमान पर थी । उसकी यूँ चहकती हुई आवाज सुनकर वृध्द माता - पिता के चेहरे पर भी खुशियांँ छा गईं। बहुत दिनों बाद आज उसे इतना खुश देखा था।

"अन्नू आज तू बहुत खुश नजर आ रहा है बेटा.... बता न क्या हुआ??"  बेटे की खुशी देख माँ फूले नहीं समा रही थी।

"अरे मांँ.. मैं आपसे बता नहीं सकता कि आज मैं कितना खुश हूँ। " 

" वह तो दिख ही रहा है अन्नू, हमें भी तो बताओ, आखिर बात क्या है, हम भी तो जाने। " अनमोल के  बूढ़े पिता जो अब लाठी के सहारे के बिना एक कदम भी चल नहीं पाते थे, उन्होंने भी उसकी इस बेइन्तेहाँ खुशी का कारण जानने की कोशिश की।

प्रसन्नता से गदगद अनमोल तेज कदमों से पिताजी के पास जाकर सोफ़े पर बैठ गया और कहने लगा," मुझे आशीर्वाद दीजिए पिताजी, मुझे नौकरी मिल गई है। "

"अरे वाह, भगवान, तेरा लाख लाख शुक्र है। " खुशी से नम हुई 
आँखों को अपनी कॉटन की साड़ी के कोरों से माँ ने  पोंछा।

"मैं अभी जाकर मंदिर में दिया जलाती हूँ।" माँ ने आंखे बंद करके ईश्वर को धन्‍यवाद दिया और पूजा घर  में चली  गई। पिताजी की बूढ़ी आँखे में भी खुशी की चमक साफ़- साफ़ दिखाई दे रही थी।

" लेकिन पिताजी.." 
क्यों... क्या हुआ बेटा?

पिताजी, मेरी नौकरी यहाँ नहीं, विदेश में लगी है और एक महीने के भीतर ही मुझे जॉइन करना है ... "

तो इसमें क्या समस्या है अन्नू ? ये तो बहुत बड़ी खुश ख़बरी है, आज तुमने गर्व से हमारा सीना चौड़ा कर दिया है।"

अनमोल के चेहरे पर अब खुशियों की जगह चिंता की लकीरें थीं।

"ओहह.. अब समझ में आया... तुम्हें हम दो बूढ़ा - बूढ़ी की चिंता सता रही है न... कि तुम्हारे बिना हम दोनों कैसे रहेंगे..... नहीं.. नहीं... अन्नू, हमारी फिक्र बिलकुल भी मत करो... तुम्हारी खुशी में ही हमारी ख़ुशी है." पिताजी की यह बात सुनकर अनमोल असमंजस में पड़ गया कि क्या कहे और कैसे कहे कि बात ये नहीं, बात तो कुछ और है।

दोनों की बातें चल ही रही थी कि माँ ने भी खुशी- खुशी कमरे में प्रवेश किया।

" हाँ अन्नू... तुम हमारी तरफ से बिलकुल निश्चिंत रहो। हम सब संभाल लेंगे बेटा। "

"तुम खुशी खुशी विदेश जाने की तैयारी करो । और फ़िर आकांक्षा भी तो है वह भी आती - जाती रहती है।" माँ ने भी अपनी बात कहते हुए अनमोल को निश्चिंत रहने की सलाह दी।

"पर माँ बात वह नहीं है जो आप समझ रहे हैं"... अनमोल के चेहरे की रौनक गायब हो गई थी। चिंता की लकीरों ने उसे कस कर जकड़ रखा था। उसके मन में उठते झंझावातों ने उसे विकल 
कर दिया था. किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा अनमोल समझ नहीं पा रहा था कि अब वह क्या करे. 
"फिर क्या बात है बेटा... एक बार कहो तो.. जब तक तुम कहोगे नहीं.. तब तक समस्या का समाधान नहीं निकलेगा...."

बहुत कुछ सोच समझकर अनमोल ने अपने मन के पापों की किताब खोल दी.

"माँ.. दरअसल .. विदेश जाने के लिए मुझे दस से बारह लाख रुपयों की जरूरत है. उसका इंतजाम कहाँ से होगा.."

अनमोल की बात सुनते ही बूढ़े माता पिता के चेहरे की हंसी भी गायब हो गई।

" माँ.. पिताजी... अगर आप लोगों को बुरा न लगे तो मेरे पास एक युक्ति है... "

" बुरा क्यों लगेगा बेटा.. तुम कहो तो...अन्नू तुम हमारे इकलौते लाडले बेटे हो.. तुम्हारे लिए तो हम कुछ भी करेंगे।" - पिताजी ने युक्ति जाननी चाही।

"पिताजी हमें यह घर बेचना पड़ेगा.. इससे मेरे विदेश जाने का इंतजाम भी हो जाएगा और आपने बैंक से मेरी पढ़ाई के लिए जो शैक्षणिक कर्ज़ लिया था वह भी चुकता हो जाएगा। "

अनमोल की बात सुनते ही माता - पिता के पैरों तले से मानो जमीन खिसक गई. उनके चेहरे की चिंता की लकीरें और गहरा गईं..

घर बेचने की बात पिताजी को अच्छी नहीं लगी -" लेकिन अन्नू , ले दे कर सम्पति के नाम पर हमारे पास एक यह घर ही तो बचा है... अगर इसे भी बेच देंगे तो इस बुढ़ापे में कहाँ जाएंगे.इस उम्र में क्या हम दर - दर की ठोकरें खाएँगे? नहीं, नहीं बेटा... कुछ और  सोचो... कोई और उपाय जरूर होगा.... मैं यह घर किसी कीमत पर बेचने नहीं दूँगा. " कहते- कहते पिताजी लाठी टेकते हुए अपने कमरे की ओर चल दिए। 
मन ही मन बुदबुदाने लगे," ह्हंहहह... ये आजकल के बच्चे भी न... इन्हें अपने स्वार्थ के आगे तो कुछ दिखता ही नहीं. अब इस उम्र में घर बेच दूँगा तो जाऊँगा कहाँ......... "
पिताजी की बुदबुदाहट सुनकर अनमोल और परेशान हो गया.

"माँ... तुम ही समझाओ न पिताजी को.... मैंने बहुत सोचा माँ .. पर हमारे पास इसके अलावा दूसरा और कोई चारा नहीं है। अब इतने जल्दी कहीं से लोन भी तो नहीं मिलेगा। माँ क्या तुम नहीं चाहती कि मेरा भविष्य उज्ज्वल हो।"

अनमोल की बात सुनकर माँ अनमोल के सुनहरे भविष्य के सपने सजाने लगी। घर में नीरवता छाई थी। माँ को कुछ समझ नहीं आ रहा था। अनमोल भी माँ के बोलने का इंतजार कर रहा था।

कुछ मिनटों के बाद माँ का मौन टूटा। उन्होंने चिंता जाहिर करते हुए अपनी बात रखी- "लेकिन अन्नू इतनी जल्दी घर के लिए खरीददार भी तो नहीं मिलेगा। "

"खरीदार!!" अनमोल की स्मित रेखा दुगनी हो गई. "
" तुम उसकी फिक्र मत करो माँ.. मैंने सब बंदोबस्त कर लिया है. हमारे मकान को खरीदार मिल गया है. दलाल और खरीदार दोनों बस आते ही होंगे... और वैसे भी, माँ आप ही तो कहती हो न... कि आप लोगों के बाद यह घर मेरा ही है.. तो देखो, अब यह मेरे ही काम आ रहा है...है न... "

अनमोल बोलता ही जा रहा था, तत्क्षण दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी ...
उन्हें देखते ही अनमोल के चेहरे पर फिर से मुस्कान पसर गई - "लो माँ.. वे लोग आ भी गए। "

अनमोल ने उनसे कुछ बातें की और पेपर कलम लाकर माँ को थमाते हुए कहा...." माँ... मेरी अच्छी माँ.. इसपर दस्तखत कर दो न...."

माँ ने एक नज़र अनमोल के चेहरे की ओर देखा. अनमोल इतना खुश था मानो  दुनिया का सबसे बड़ा ख़ज़ाना उसके हाथ लग गया हो. 
बूढी माँ ऐसी परिस्थिति में करती भी क्या वह तो बस अपने बेटे के सुनहरे भविष्य के सपने देख रही थी. 
उन्होंने उदास हो कर न जाने क्या सोचते हुए उन कागजों पर दस्तखत कर दिए। माँ की आँखों में दुख और सुख मिश्रित सागर उमड़ रहा था, जिसका आभास उनके इकलौते बेटे को जरा सा भी न था और जो खरीदार के जाते ही अपना बाँध तोड़कर तेज़ी से बह निकला।

अनमोल ने खुशी - खुशी पैसे से भरा सूटकेस लेकर घर में प्रवेश किया। तो देखा कि माँ रोए जा रही थी।

"माँ, आप चिंता क्यों करती हो... आप दोनों के रहने का इंतजाम मैंने कर दिया है. माँ कुछ समझ नहीं पा रही थी और चकित निगाहों से बेटे अनमोल को ही देखे जा रही थी।

पैसों का सूटकेस अलमारी में संभाल कर रखते हुए अन्नू बोला," माँ पास ही एक बहुत बढ़िया वृद्धाश्रम  है. मैं उसके मैनेजर से भी मिल आया हूँ.. आप लोगों के रहने सहने का बहुत बेहतरीन इंतजाम है वहाँ।आप दोनों दिन भर  इस घर में अकेले  पड़े पड़े ऊब जाते हैं..  मस्ती मजाक में आप का दिन वहाँ कैसे कट जाएगा आप उसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते।माँ... वहाँ आपको आपकी उम्र के ढेर सारे लोग मिलेंगे। "  चेहरे पर झूठी मुस्कान सजाए माँ भीतर ही भीतर टूट रही थी।लेकिन उसके टूटने की आवाज उसके इकलौते बेटे को कानों तक नहीं पहुंच रही थी।

कुछ हफ्तों बाद अनमोल विदेश चला गया

बूढ़े माता पिता के आँखों के जिस इकलौते तारे अनमोल ने उन्हें वृद्धाश्रम की दहलीज़ दिखाई , उसने विदेश जाने के बाद उनकी सुधि लेने के लिए एक चिट्ठी भी कभी नहीं लिखी।

कुछ दिनों बाद इन सब बातों से अनजान आकांक्षा जब अपने माता - पिता से मिलने उनके घर पहुँची तो पड़ोसियों ने उस कलयुगी बेटे की सारी करतूत बता दी। आकांक्षा  डबडबाई आँखों से दौड़ी दौड़ी वृद्धाश्रम पहुँची और समझा बुझाकर अपने घर ले आई।



वह भयावह रात...


रात के कोई ढाई बज रहे थे.काली तामसिक अँधेरी रात्रि में प्रिया को अचानक खौफ से भरी एक दर्दनाक आवाज़ सुनाई दी । यह आवाज  सुनते ही उसके भीतर भी एक भय पसर गया। व‍ह गहरी नींद में थी, फिर भी सोते - सोते  वह अचानक ठिठक गई थी। भय से सहसा उसकी आँखें खुल गईं तो उसने पाया कि अर्जुन नींद में बड़ी ही तीव्र गति से अपना सिर दाएं से बाएं और बाएँ से दाएँ झटक रहा था।  "छोड़ो, छोड़ो मुझे छोड़ो...! " व‍ह चीख रहा था,पर ठीक से चीख नहीं पा रहा था। व‍ह चीख मानो उसके हलक में अटक गई थी। न जाने अर्जुन को क्या हो रहा था।

बहुत डरते हुए,हौले से जब प्रिया ने उसे झकझोरा तो अर्जुन झटके से अपनी तन्द्रा से बाहर आया। ठंड के मौसम में भी वह पसीने से तर - बतर था। पास ही पड़े हुए चादर से प्रिया उसका पसीना पोंछने लगी  कि व‍ह प्रिया से लिपट कर ज़ोर- ज़ोर से रोने लगा - "प्रिया कोई कस कर मेरा गला दबा रहा था। मैं छुड़ाने की कोशिश कर रहा था पर छुड़ा नहीं पा रहा था और नाकाम हो रहा था। "

"गला दबा रहा था!!! कौन???  पर...पर यहाँ तो कोई भी नहीं है।" - प्रिया के माथे पर बल पड़ गए। चकित होकर उसने अर्जुन से सवाल किया और बिस्तर के पास ही बने स्विच बोर्ड पर हाथ फेरकर उसने तुरंत बत्ती जला दी।

अर्जुन के चेहरे से घबराहट अब भी झलक रही थी।

प्रिया ने खिड़की की ओर देखा। खिड़की  भी तो बंद थी फिर अचानक से अर्जुन को क्या हो गया.... न जाने, कौन- सा डर, कौन-सा भय उसे भीतर से सता रहा था। प्रिया ने उसे सम्भालने की कोशिश की। 
"ऐसा कुछ नहीं है अर्जुन ! देखो... देखो तुम शांत हो जाओ!  यहाँ कोई नहीं था तुमने जरूर कोई भयानक सपना देखा है। " प्रिया तसल्ली देने लगी !

"नहीं प्रिया... कोई था... तुमने कैसे नहीं देखा उसे , वो.... वो मेरे ऊपर चढ़ा हुआ था और मेरी गर्दन उसके हाथ में थी.... वो मुझे जान से मारने की कोशिश कर रहा था..... और तुम कह रही हो कि यहाँ कोई नहीं था। "

  अर्जुन का चेहरा डर के मारे पीला पड़  चुका था। पसीना चूए जा रहा था, मन ही मन वह न जाने क्या सोच रहा था। उसे इस हालत में देख कर प्रिया को भी कुछ घबराहट- सी होने लगी थी। उसे डर लग रहा था कि कहीं अर्जुन की तबीयत न खराब हो जाए। वैसे भी कामकाज के तनाव में आजकल अर्जुन कितना परेशान रहते हैं... प्रिया को कुछ समझ नहीं आ रहा था। फिर भी जैसे - तैसे उसने स्वयं को सम्भाला। 
परंतु अर्जुन!!!अर्जुन तो अभी भी सहमा हुआ बिस्तर के एक कोने में अपने आप को पूरी तरह समेट कर बैठा हुआ था। प्रिया ने फिर से एक बार उसे ज़ोर से झकझोरा कि व‍ह उस भयावह स्वप्न से बाहर निकले। 
कुछ इधर- उधर की बातें करके और उन्हें समझा -बुझाकर किसी तरह उसने अर्जुन को सुला दिया।

सुबह होते ही प्रिया चाय लेकर जब कमरे में पहुंची तो अर्जुन भी जाग चुका था। रात की बात निकली - "थैंक्स प्रिया!!"

"थैंक्स!!! थैंक्स किसलिए अर्जुन। "

"थैंक्स इसलिए प्रिया... कि रात में अगर तुम सही समय पर मुझे नहीं जगाती तो डर के मारे सपने में ही शायद मेरी जान निकल जाती."

"अरे...ये कैसी बातें कर रहे हैं... प्लीज ऐसी बातें मत कीजिए अर्जुन!" रात की घटना उसकी आँखों से सामने एकबार फिर घूम गई ।" आपको इस हालत में देखकर एक पल के लिए मैं भी बहुत घबरा गई थी। चारों ओर सन्नाटा- पसरा था और मेरे और तुम्हारे भीतर एक डर।  ये मन भी न... न  जाने क्या - क्या सोचने लगता है। "

  " ख़ैर छोड़िए इन बातों को ... और वैसे भी... ... "मेरे होते हुए आपको कुछ नहीं हो सकता। " - अर्जुन के करीब जाकर प्रिया ने अर्जुन का हाथ थामकर कहा।

  प्रिया को छेड़ते हुए अर्जुन मजाकिया अंदाज़ में बोला-   "अच्छा ज़ी ... तो क्या तुम सावित्री हो... जो यमराज से मेरे प्राण छीन लाओगी."

" जी मेरे हुजूर.... . " जैसे ही प्रिया ने  शरारती लहजे में ये शब्द कहे, दोनों की हँसी से पूरा घर गूँज उठा। घर के माहौल में अब  सजीवता आ गई थी।  प्रिया को  अर्जुन ने अपने आलिंगन में ले लिया। अब वे रात की काली छाया से कोसों दूर जा चुके थे।



पिकनिक की वह रात

    

      अनन्या अपनी स्कूल की दो दिवसीय पिकनिक पर गई थी। पूरा दिन उसने अपने दोस्तों के साथ बस में खूब हो हल्ला किया। हरी - हरी घास, चारों ओर हरियाली, पास ही बहती नदी और उसका ठंडा शीतल जल। प्रकृति के बीच आकर उसे खूब अच्छा लग रहा था। प्रकृति के सानिध्य में स्कूल कैम्प द्वारा आयोजित किए गए विभिन्न  क्रियाकलापों में दिन कैसे बीत गया पता ही नहीं चला।शिक्षक भी सभी बच्चों को यथास्थान सुलाकर सोने चले गए।

कुछ घंटा भर ही बीता था कि अनन्या जोर से चीख़ी। चीख सुनते ही सब घबराकर नींद से जाग गए और अनन्या की ओर भागे। अनन्या अपने बिस्तर में नहीं थी। उसकी आवाज बाहर झाड़ियों से आ रही थी। रात का समय था। अंधेरा भी काफी था इसलिए किसी को कुछ नजर भी नहीं आ रहा था। तभी टॉर्च की रोशनी में किसी छात्र ने देखा कि एक बड़ी मोटी जंगली मकड़ी ने उसकी उंगली में काट लिया था और  बड़ी तेज गति से दूसरी तरफ रेंगते हुए पल भर में हुए झाड़ियों में लुप्त हो गयी।

काटे हुए स्थान पर अनन्या को बहुत जलन महसूस हो रही थी। उसकी साँसे भी तेज हो रही थी। कराहते- कराहते उसने अपनी सहपाठी और प्रिय सहेली लीना को व‍ह सोने की अंगूठी उठाने का इशारा किया जो उसकी उंगली से गिर गई थी।

कदाचित् उस अंगूठी को ढूँढते वक़्त ही उस मकड़ी ने इसे काट लिया था; जिसके विष के असर से उसके पूरे शरीर पर लाल रंग के चकत्ते उभर आए थे और उसे साँस लेने में भी परेशानी महसूस हो रही थी। 
तभी अचानक से भीड़ में से किसी अजनबी ने कहा, "हटो, हटो! मुझे देखने दो!"

अनन्या को देखते ही वह अजनबी समझ गया कि उसे किसी मकड़ी ने ही काटा है।  उसने तुरंत उसे उठाया और सबको ढांँढस बंधाते हुए अपनी झोपड़ी की ओर भागा।तेज भागने के कारण उसकी आवाज़ में भी कंपन थी।

"आप लोग चिंता मत कीजिए..... बिटिया को कुछ नहीं होगा..... ये ठीक हो जाएगी...... इसका इलाज है मेरे पास.... मैं यहीं रहता हूँ.... पास ही मेरी झोपड़ी है..... अभी मैं जड़ी - बूटी लगाए देता हूँ... बस आधे घंटे में बिटिया ठीक हो जाएगी... बच्चों! तुम लोग भी अधिक परेशान मत हो.... सब ठीक हो जाएगा !"

   सभी बच्चे और शिक्षक घबराए हुए उसके पीछे - पीछे तेज गति से भागे जा रहे थे । किसी स्थानीय व्यक्ति की सहायता लेने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं था। ऐसी परिस्थिति में उन्हें  कुछ और सूझ भी नहीं रहा था। उस ग्रामीण ने बड़ी शीघ्रता दिखाते हुए ज़ड़ी - बूटियों को पीस कर सभी प्रभावित स्थानों और उसकी उंगली पर लगा दिया। 

  आधे घंटे बाद जब अनन्या को थोड़ी राहत महसूस हुई तो वहाँ उपस्थित सब लोगों ने चैन की साँस ली। सबके चेहरों पर मुस्कान खिल गई। उस ग्रामीण का और ईश्वर का धन्‍यवाद करके वे उसी दिन अपने घर वापस आ गए। उस दिन से अनन्या के मन में मकड़ी के लिए एक डर- सा बैठ गया।

कुछ बच्चों को बुरा लगा कि पिकनिक से उन्हें एक ही दिन में लौटना पड़ा। पर उससे ज्यादा खुशी उन्हें इस बात की थी कि अनन्या को कुछ नहीं हुआ और सही सलामत सभी लोग अपने घर लौट आए।

स्वरचित.: सुधा सिंह



शनिवार, 23 मई 2020

अभागिन


जेष्ठ मास की झुलसाने वाली इस कड़ी धूप में राष्ट्रीय राजमार्ग पर जहाँ एक परिंदा भी नजर न आता था, छब्बीस वर्षीय मुनिया उसके एक किनारे पर अपने नवजात बच्ची को अपने सीने पर औंधे मुंह लिटाकर निढाल हो कराह रही थी। उसकी बच्ची भी लगातार रोये जा रही थी।

तभी इस चिलचिलाती धूप में भूखे प्यासे पैदल ही अपने गंतव्य की ओर धीरे धीरे अग्रसर हो रहे कुछ मजदूरों को किसी नन्हें बालक की रोने की आवाज़ सुनाई पड़ी। आवाज सड़क की बाई ओर से आ रही थी।

"अरे  देखो तो लगता है अब ही इसने बच्चे को जन्म दिया है .. इसकी तो नार भी नहीं कटी है... ए सोनू पानी दे रे जल्दी.. देख तो एकर मुँह झुरा (सूखा) गया है.. हे भगवान ..."
राज देव ने अपने साथी सोनू से पानी माँगकर मुनिया को पिलाया ।
"बहिन अब ठीक हो। आपका बच्चा होने वाला था तो आप बाहर क्यों निकली.... क्या आपके साथ कोई है.??"

मुनिया बोलने की हालत में नहीं थी।
राज देव ने यहाँ -वहाँ नजर दौड़ाई परंतु उसे आसपास कोई  नजर नहीं आया।

 "बहन जी, इस बच्ची के पापा कहाँ हैं?आप अकेली कहाँ जा रही हैं???",

 राजदेव ने एक नुकीला पत्थर उठाकर 
दो तीन प्रहार करके बच्चे की लटक रही नार को काट दिया।
कुछ देर बाद जब उसे थोड़ी चेतना आई तो उसकी आँखों का समंदर बह निकला,

"बड़ी अभागिन है ई  बिटिया हमार... एक हफ्ता पहिले जब उ(पति) दम तोड़ दिए तो ओनकर लाश पुलिस वाले उठा ले गए । कारखाना बंद होए से रुपिया पैसा तो कब के खतम हुई गवा..अरे.. इही अभागिन खातिर हमें खिला देते थे केहू तरह... लेकिन खुद पानी पीकर रही जाते थे। एकर पापा भूख बर्दाश् नहीं कर पाए भइया..उ..हमें अकेला छोड़ के चल दिये। अठवाँ महीना चलत रहा ..केकरे भरोसे जिनगी बीतत बाबू ...." अपनी आपबीती बताते -बताते मुनिया फूट -फूटकर रोयी।

फिर खून से सनी अपनी नवजात बच्ची को अपनी मैली कुचैली पैबंद लगी साड़ी में लपेटकर मुनिया अकेली अपने गंतव्य के लिए निकल पड़ी।
और पीछे छोड़ गई रक्त सना इतिहास जिसका जिक्र कालांतर में शायद किसी पन्ने पर न होगा।

सुधा सिंह 'व्याघ्र

गुरुवार, 21 मई 2020

याद नहीं रहा...




"तुमने मुझे सुबह 7 बजे मिलने का वायदा किया था।" 

 "ओह सो सॉरी, मुझे याद ही नहीं रहा।"

"रात के 8 बज रहे हैं प्रिया ; मई की इस भीषण गर्मी में भी पूरा दिन भूखा -प्यासा मैं तुम्हारा इंतजार करता रहा । मेरे हाथों के गुलाब मुरझा गए और तुम बस सॉरी.....।" 

"देखो प्रतीक, मैंने तुम्हें अपना इन्तजार करने के लिए कभी नहीं कहा;  अब फोन रखो और ख़बरदार जो आज के बाद कभी भी मुझे फोन करने की कोशिश भी की तो...." 
दूसरी ओर से आवाज आई-"ठक!!!
औऱ प्रतीक वहीं बिखर गया। प्यार के प्रस्ताव से पहले ही उसका दिल टूट गया था।

सोमवार, 18 मई 2020

उम्मीद अभी बाकी है



कल कल बहती नदिया के तट पर एक बड़े से खुले सभागार में बड़े पैमाने पर वार्षिक समारोह का आयोजन किया गया था।उस कार्यक्रम में गरिमा भी आज अपना कथक नृत्य पेश कर रही थी। सूर्य अस्ताचल पर था।  नीचे नदिया का  नयनाभिराम सुंदर किनारा औऱ ऊपर  अथाह विस्तृत नीला वितान । सबकुछ कितना मनमोहक था।तभी अचानक से चिड़ियों का झुंड कलरव करते एक -एक करके उनके ऊपर से गुजरने लगा। चिड़ियों की चहचहाहट और बजता संगीत वातावरण को और खुशनुमा बना रहा था । परंतु चिड़ियों का मधुर स्वर  ज्यों ही गरिमा के कानों में पड़ा उसका मन व्याकुल हो उठा। बेचैनी व व्यग्रता के भावातिरेक में वह खूब जम कर नाची। उसने बहुत अच्छा नृत्य पेश किया और तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा वातावरण गूँज उठा।जैसे ही नृत्य समाप्त हुआ वह तेजी से मंच के पीछे भागी और अपना मास्क निकाल कर फूट -फूटकर रोने लगी।
 रागिनी ने  दूर से ही जब उसे रोते देखा तो वह भी घबराकर दौड़ी- दौड़ी उसके पास आई ," गरिमा, क्या हुआ...तुम इतना रो क्यों रही हो ...आखिर क्या हो गया... अभी तक तो सबकुछ ठीकठाक था.. तुम इतना अच्छा नाची... फिर क्या हो गया... कहीं चोट -ओट तो नहीं आई...दिखाओ मुझे कहाँ लगी है...", रागिनी ने अपने मुँह से मास्क उतारते ही आशंकाओं की झड़ी लगा दी।

"कुछ नहीं रागिनी, बस ऐसे ही।", गरिमा ने आँसू पोंछते हुए अपनी भर्राई हुई आवाज में कहा।
 
 "कुछ नहीं पर कोई इतना रोता है क्या... नहीं ..कुछ तो बात है.... लाओ देखूँ तो कहाँ लगी है......",अपने हाथों को सैनिटाइजर लगाकर गरिमा के पैरों  का मुआयना करने के लिए रागिनी ने अपना हाथ बढ़ाया तो गरिमा उससे छिटककर दूर खड़ी हो गई।

" रागिनी, तूने आसमान में चिड़ियों की आवाज सुनी न ...तुझे पता है मुझे वह आवाज अच्छी नहीं लग रही थी... मुझे क्रोध आ रहा था... खुद पर... तुझ पर..इस पर... उस पर... सब पर.... पूरे समाज पर....",रोते- रोते वह एक -एक करके आसपास खड़े लोगों की ओर इशारा करते हुए बोलती जा रही थी।
 
"अरे.. आज हम हवा में खुलकर साँस नहीं ले सकते... किसी से मिल नहीं सकते... ये मास्क , ये सैनिटाइजर , ये सोशल डिस्टैन्सिंग,....हंह. हम दोनों गले मिलकर अपनी इस जीत की खुशी भी नहीं मना सकते रागिनी.....दर्शकों के चेहरे पर मास्क.. हमारे चेहरे पर मास्क... क्या वे मेरा.. तेरा... या.. हममें से किसी भी एक का, चेहरा देख पाए..क्या वे हम में से किसी एक को भी पहचान सकते हैं...नहीं न... तू ही बता.. क्या तू खुश है इस जिंदगी से...",गरिमा ने रोते- रोते पूछा।

"नहीं रागिनी... मैं तो क्या...यहाँ कोई भी खुश नहीं है..पर एक उम्मीद है सबकुछ ठीक होने की..सबकुछ पहले जैसे होने की... रागिनी...अच्छे दिन नहीं रहे मेरी दोस्त ..तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे...तुम देखना एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा... फिर हमें यूँ चेहरे पर मास्क नहीं लगाना पड़ेगा...यूँ समझ लो कोरोना के रूप में ईश्वर परीक्षा ले रहे हैं... और मुझे यकीन है , इस परीक्षा में हम अच्छे अंकों से पास होंगे... बस हमें सब्र रखना होगा...रखोगी न सब्र....."रागिनी की आँखों में आशा की एक चमक नज़र आ रही थी । वह गरिमा को समझा ही रही थी कि तभी इनाम देने के लिए इनके ग्रुप के नाम की घोषणा हुई।

"सुना गरिमा आज की परीक्षा तो हमने जीत ली... तो क्या अगली परीक्षा नहीं जीतेंगे..." रागिनी की बातों ने अब गरिमा के हृदय में भी एक नई उम्मीद का बीजारोपण कर दिया था। जिसका असर उसकी आँखों में साफ नजर आ रहा था।जीत की ट्रॉफी लेने के लिए अब वह दुगुनी गति से मंच की ओर भागी।





रविवार, 17 मई 2020

अभिलाषा


अभिलाषा

   लॉक डाउन के चलते प्रज्ञा का ऑफिस दो महीने से बंद था। 
उस दिन अपने वीमेन्स होस्टल की छत पर अकेली खड़ी -खड़ी प्रज्ञा बाहर का नजारा देखकर बेचैन हो उठी। सूनी सड़कें , खाली गालियाँ , सुनसान बाज़ार मानो मुँह चिढ़ा रहे हों , " लो, तुमने जिस विकास के सपने देखे थे, वो अब तुम्हारे सामने है; सब कुछ तुम्हारी अपनी पसंद का,मेरी बनाई हुई दुनिया तो तुम्हें कभी अच्छी लगी ही नहीं ना.... अब जियो, अपनी बनाई हुई नयी दुनिया में । "

 " नहीं.... नहीं ...मैंने तो कभी भी इस जीवन की अभिलाषा नहीं की थी ,जहाँ अपनों से दूर, सब ईंट - सीमेंट में  पिंजरबद्ध हो जाएँ। सचमुच भागते- भागते....ये कहाँ पहुँच गई हूँ मैं। नहीं.. अब और यहाँ न रह पाऊँगी मैं। प्रकृति और हरियाली के बीच, खेतों- खलिहानों को  फिर से जीवंत करने अब लौट जाऊँगी अपने गाँव। माँ.... पिताजी.... मैं जल्द ही अपना त्यागपत्र देकर आ रही हूँ आप सबके पास...हमेशा- हमेशा के लिए...।",  जैसे किसी ने उसे ज़ोर- से गहरी निद्रा से झकझोर कर जगा दिया हो और वह तुरंत अपना सामान बांधने के लिए तीव्र गति से अपने कमरे की ओर चल दी।


शुक्रवार, 15 मई 2020

पूत- भतार


मीना को जब पता चला कि यशोदा जीजी  शहर से घर आ गई हैं तो घर के सारे काम जल्दी -जल्दी निपटा कर वह उनके घर पहुुँच गई। मीना यशोदा के पड़ोस में ही रहती थी। दोनों में बहुत आत्मीयता थी। अतः यशोदा और मीना की आपस में बड़ी जमती थी। यशोदा थी भी बड़ी दिलवाली । कभी किसी की मदद से पीछे न हटती। गाँव की सभी स्त्रियाँ उसकी सदाशयता से भली भांति परिचित थीं।
व्यापारी होने के नाते यशोदा का पति सोमेश अच्छा -खासा कमा लेता था इसलिए यशोदा की जेठानी चंपा हमेशा यशोदा से कुढ़ा करती थी।


यशोदा को देखते ही मीना के चेहरे पर मुसकान खिल गई। यशोदा के पैर छूकर उसने यशोदा के बच्चे को उसके हाथ से ले लिया और मोहित होकर उससे दुलराने लगी।


" जीजी.. लल्ला कितना सुंदर है !! ओह्ह.. मेरी नज़र न लगे । आठ -ओठ महीने का तो हो ही गया होगा न । बड़ा अच्छा कीं जीजी ..  जो आप आ गईं। बड़ा दिन हो गया था आपको देखे।" कहते -कहते उसने अपनी आँख की एक कोर से काजल निकालकर यशोदा के बेटे के कान के पीछे लगा दिया।


"आना तो था ही मीना, बच्चों की छुट्टियाँ शुरू हो गई हैं और लल्ला का मुंडन भी तो करवाना है न।"-यशोदा ने कहा।

मीना ने यशोदा की बात को बीच में  काटा और यशोदा की जेठानी चंपा की ओर कुटिल मुस्कान फेंकती हुए यशोदा से बोली ," अरे जीजी ,अब तो अब तो आपके पास गहना- गुरिया भी है..और पूत- भतार(भर्तार,पति) भी। अब तो इस घर में आप- सा अमीर और कोई नहीं।"  चंपा पास ही खाट पर बैठी थी । अपनी कही पुरानी बात याद आते ही वह झेंप गई।


यशोदा और चंपा के सामने पिछले साल का वह दृश्य तैर गया । गर्मी की छुट्टियों में पिछली बार जब यशोदा गाँव आई थी तो उसके हाथ में सोने के मोटे -मोटे  नक्काशीदार कंगन थे, जिन्हें देखकर हर कोई उनकी तारीफ कर रहा था। 

उस समय भी चंपा वहीं पास में बैठी थी। चंपा से जब उनकी बातें बर्दाश्त न हुई तो उसने बड़े अहं भाव से सबसे चिढ़कर कहा ,"हंह.. लोगों के पास गहना -गुरिया है  तो क्या हुआ... मेरे पास पूत भतार है।"  , कहकर मन ही मन कुछ बुदबुदाते हुए चंपा वहाँ से उठकर अपने कमरे में चल दी।


अपनी जेठानी द्वारा कही गई इतनी कड़वी बातें सुनकर यशोदा का चेहरा फिर उतर गया  और आँसू आँखों से लुढ़ककर गालों पर आ गए।
उसे केवल तीन लड़कियाँ ही थी। बेटा एक भी नहीं था। चंपा बार- बार यशोदा की इस कमी का अहसास कराती रहती।

परंतु वह कुछ बोल न पाती।बोल भी क्या सकती थी।बेटा या बेटी होना अपने हाथ में तो होता नहीं।
 परंतु विधाता ने पुत्र रत्न देकर इस बार उसकी इस कमी को भी पूरा कर दिया था और चंपा के मुंह पर  भी एक जोरदार तमाचा जड़ा था। वो कहते हैं न कि ऊपर वाले की लाठी में आवाज़ नहीं होती। पर न्याय होकर रहता है।



#ब्रह्म हत्या


 ब्रह्म-हत्या

 "अरे ...आज इ गइया एतना काहे बोलत ब  ।" मध्यरात्रि में ज़ोर - ज़ोर से गाय के रंभाने की आवाज़ सुनकर गोरकी की नींद उचट गई।

गाय की आवाज़ में एक अलग ही छटपटाहट थी ।इसलिए
आँखे मलते हुए दरवाजे की सांकल खोलकर गोरकी घर से बाहर की ओर भागी ।उसे लगा गाय को प्रसव पीड़ा हो रही है।शायद इसीलिए वह इतना रंभा  रही है ।परंतु गोरकी जैसे ही बाहर पहुँची, सामने का नज़ारा देखकर वहीं ठिठक गई। 
 गाय के गोठे से आग की बड़ी- बड़ी लपटें उठ रही थी। आग इतनी ज़्यादा तेज़ थी कि गोरकी गोठे के भीतर जाकर खूँटे से बंधी हुई गाय को छुड़ाने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी। घबराहट के मारे वह कुछ भी समझ पाने में असमर्थ थी इसलिए मुँह पर हाथ धरकर कुछ पल तक विस्फारित नज़रों से वह उन आग की ऊँची- ऊँची लपटों को देखती रही । चाँद अपनी पूरी रोशनी के साथ आसमान में अपनी छटा बिखरा रहा था।परंतु धीरे धीरे धुएँ के गुबार ने काले बादलों की तरह पूरे आसमान को आच्छादित कर लिया ।
अपनी जान की फिक्र किसे नहीं होती। गोरकी की गाय पूरी तरह से अग्नि की लपटों में घिर चुकी थी। अपनी जान बचाने के लिए वह छटपटा रही थी। खूंटे से बँधी लोहे की सांकल से छूटने  की जद्दोजहद में वह लगातार अपनी सींगों से खूँटे पर प्रहार कर रही थी।

"अरे रमेशवा के बाबू, रमेशवा के बाबू उठा हो  ….गइया के छोड़ावा…..देखा ... गोठवा जरत बा हो…. अब का होइ हो ….अरे माई ...अब का होइ…. हमार गइया मरि जाइ हो…."रोते -रोते गोरकी बेतहाशा अपने पति बसेसर को जगाने के लिए घर के भीतर भागी।

गोरकी का क्रंदन सुनते ही धीरे -धीरे पूरा गाँव बसेसर के  फूंस के बने जलते हुए गोठे के पास इकट्ठा हो गया था।बालटी लोटा ,मटका जो कुछ जिसके हाथ लगा उस में  पास के कुएँ से जल भर -भर कर सब आग बुझाने में जुट गए । किसी तरह आग पर काबू तो पा लिया गया परंतु तब तक बसेसर औऱ गोरकी का सब कुछ लुट चुका था।बसेसर की गाय इसी माह में ब्याने वाली थी। मगर अब कोई उम्मीद नहीं थी। आग में पूरी तरह से झुलस कर गाय धड़ाम से ज़मीन पर गिरी और कुछ ही क्षणों में वह जिंदगी की बाज़ी हार गई। 
"फट….."-  मरते वक्त उसका पेट फटने की बड़ी तेज़ आवाज़ आई।अपने पूरे जीवन काल में ग्रामवासियों ने अपनी आँखों से ऐसा दृश्य नहीं देखा था जो आज देख लिया।
उस आवाज़ ने एक पल के लिए सबकी  साँसे रोक दी थीं।
पेट फूटते ही एक बछिया अपनी माँ के पेट से बाहर ज़मीन पर गिरी । बछिया की सांसें चल रही थी। सबके आश्चर्य का ठिकाना न था।सबने दाँतों तले अपनी उँगली दबा ली। कुदरत का एक नया करिश्मा देखा था सबने।
"बसेसर अऊर ओकर मेहरारू जरूर कउनो अच्छा काम किहे होइहैं ...अरे बहिनी...तबे त बछियवा जीयत बा न।नाही त का ईहो अपने माइ के संघे न मरि ग होत… "रामराज की पतोहू ने आँचल को मुँह में दबाए दबाए आंखों को मटकाते हुए लछमिनिया के सामने बसेसर और गोरकी का पाप पुण्य तौल दिया।
"हाँ बहिन… सही कहू… लेकिन ई जवन कुल जरि ग.. ओकर का…." लछमिनिया ने भी रामराज की पतोहू के सामने अपना पक्ष रख दिया।
पूरे गाँव में तरह- तरह की बात होने लगी।कोई बसेसर और गोरकी को सांत्वना देता तो कोई उनके पाप -पुण्य का फल बताता।

ज्येष्ठ मास की वह भोर बसेसर औऱ गोरकी के लिए सुख का सवेरा नहीं बल्कि दुःख और दर्द का अंधेरा ले कर आई थी। गर्मी के कारण पारा बहुत ऊपर पहुँच चुका था।इसलिए गोठे में रखे पुआल ने आग पकड़ लिया था।गोठे से लगे कच्चे घर में भी आग ने खूब तांडव मचाया था ।पुआल और भूंसे के कारण उसके नीचे दबा कर सुरक्षित रखा गया अनाज भी जल कर ख़ाक हो चुका था।आखिर ग़रीब किसान के पास उसकी पूँजी के नाम पर  होता ही क्या है…. उसके फांके के दिन आ चुके थे।और दस वर्षीय रमेशवा पर जो ब्रह्म हत्या का पाप लगा था उसका भी निवारण करना था। बीती रात गाय को उसने ही तो खूँटे से बाँधा था।
पंडित जी आकर धार्मिक रीति रिवाज़ों के अनुसार अंत्येष्टि संस्कारों की सारी यथोचित विधि ,खर्च आदि सब बता गए। 

"रमेशवा के माइ का करी ..जाइ के साव से करजा लेइ आई   नाही त ...कइसे चली। "बसेसर ने गोरकी से कहा।

" रमेश के बाबू कउनो अउर तरीका ना हौ का…. उ सहुकरवा त   ढेर के सूद लेइ….कइसे चुकी कर्जवा...एक ठे बछियवौ अब मुड़े पे बा ...अब वोहु के चारा- पानी ...हे  भगवान!! ई कौने पाप के सज़ा मिलत हौ…. रमेशवा बेचारा कइसे एतना दिन सम्हारी… उ त अबहीं खुदै नान्ह के  लड़िका हौ। ओकरे बेचारे पे ब्रह्म हत्या लगि ग भगवान ... ई कौने जनम के सज़ा दिहू भगौती माई…." गोरकी माथे पर हाथ धरकर भगवान को दुहाई देने लगी।

गोरकी  की बात सुनकर बसेसर भी सोच में पड़ गया । सूद और कर्ज न चुका सकने का डर उसके मन को भयभीत कर गया।  निढाल होकर वह वहीं खाट पर बैठ गया। 
पर उसके बेटे के सिर पर लगे ब्रह्म हत्या के पाप  का पश्चाताप करने के लिए रीति रिवाज़ों का पालन भी तो करना पड़ेगा। एक ओर कुआँ तो दूसरी ओर खाई। कोई दूसरा चारा भी तो नहीं है यही विचार कर बसेसर उठा और क़र्ज़ माँगने के लिए साव से मिलने उसके घर की ओर चल दिया।







वह पीला बैग

"भाभी यह बैग कितना अच्छा है!! कितने में मिला?" नित्या की कामवाली मंगलाबाई ने सोफे पर पड़े हुए बैग की तरफ लालचाई नजरों से इशार...