रविवार, 21 जून 2020

नीलू...


नीलू पूरे छः महीने की हो गई थी आज। इसलिए बंटी ने माँ से केक बनवाकर  अपनी कक्षा के सभी बच्चों में बाँटकर धूमधाम से उसके छःमासे जन्मदिन की खुशी मनाई ।
बंटी जब नीलू को घर लाया था तो व‍ह मात्र दस- बारह दिन की ही थी। छोटी - सी, बस एक हाथ में समा जानेवाली। उसके उन रूई के फाहे से अधिक  मुलायम काले घने बालों पर हाथ फेरते ही हाथ फिसलने लगता था। उसकी निर्मल काली गोल- गोल आँखों की मासूमियत हर किसी को अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर लेतीं। 
"माँ, आज से इसका नाम नीलू।"-बंटी ने स्नेह से उसके बालों पर हाथ फेरा।


नीलू!! भला यह क्या नाम है हुआ एक पिल्ले का???


"माँ, इसे पिल्ला मत कहो,इसे नीलू कहो नीलू। यह  मुझे अवस्थी अंकल के बग़ल वाली नीली कोठी के पास मिली है  इसलिए मैंने इसका नाम नीलू  रखा है। अच्छा है न।"


"अच्छा बाबा ...नीलू...  बस !!सचमुच बहुत सुंदर नाम है ...नीलू...।"
  
बंटी ने बड़े प्यार से उसका नाम रखा था नीलू ।नीलू की देखरेख की सारी जिम्मेदारी दस वर्षीय बंटी ने स्वयं अपने कंधों पर ले ली थी ।प्रतिदिन सुबह- शाम उसे घुमाने ले जाना ; उसका खाना- पीना; उसके साथ खेलना... यह सब उसकी दिनचर्या में शामिल हो गया था।

नीलू की मासूम हरकतें सबको बड़ी प्यारी लगती थीं।परिवार के किसी खास सदस्य की तरह कुछ ही दिनों में वह सबकी दुलारी हो गई थी । उसके  कारण अब पहले के मुकाबले घर में चहल- पहल भी ज्यादा बढ़ गई थी।परंतु दादी को नीलू कभी पसंद नहीं आई। उन्हें कुत्तों से एक अजीब- सी चिढ़ थी।इसलिए वे उसे घर में घुसने न देतीं।

बंटी घर के बरामदे में ही उसका खाना पानी दे आता।नीलू गलती से भी कभी यदि दादी को छू लेती या चाट लेती तो दादी की भनभनाहट शुरू हो जाती।

"हरे राम..  राम..राम.. इस पिल्ली ने तो मुझे भ्रष्ट कर दिया.. अब दोबारा नहाना पड़ेगा।"
और जब तक वे दोबारा स्नान न कर लेती तब तक उन्हें चैन न पड़ता।

गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हो गई थीं।बंटी की चचेरी बुआ की शादी तय हो गई। शादी में जाने के बारे में सोचकर ही बंटी बड़ा ख़ुश था।वह एक- एक दिन गिन रहा था। गाँव जाने की सारी तैयारियाँ भी पूरी हो चुकी थी। पंद्रह दिन में लौट आने की योजना बनाकर बंटी के पिता सुभाष अग्रवाल जी ने रिटर्न टिकट भी निकाल लिया। परंतु सबके मस्तिष्क की सूई बार -बार एक ही बिंदु पर आकर अटक रही थी कि नीलू का क्या करेंगे । उसे कहाँ छोड़ेंगे।उसे ट्रेन में अपने साथ भी तो नहीं ले जा सकते। 


आखिर गर्मी की छुट्टियों का सभी को बेसब्री से इंतजार रहता है।सो आस -पड़ोस के लोग भी अपनी अपनी छुट्टियाँ मनाने के लिए कहीं न कहीं चले गए हैं।पड़ोस में अब ऐसा कोई भी नहीं था कि नीलू को कुछ दिनों के लिए उसके हवाले किया जा सके।

 शादी में शामिल नहीं हुए तो लोग- बाग दुनिया भर की बातें बनाएँगे ।इसलिए शादी में न जाने का प्रश्न ही नहीं उठता । 

 बंटी के समक्ष पूरी वस्तुस्थिति रखी गई तो बंटी भी उदास हो गया और नीलू को भी अपने साथ ले जाने की ज़िद करने लगा।परन्तु सुभाष जी ने  चार- पाँच दिन में लौट आने का भरोसा दिलाते हुए किसी तरह से उसे मना लिया।


वह दिन भी आ गया जब उन्हें गाँव के लिए निकलना था।नीलू के लिए खाने -पीने का पूरा इंतजाम करके अपरिहार्य स्थिति में सब टैक्सी से रवाना हुए।

बरामदे के बाहरी द्वार पर ताला औऱ कुंडी न लगाकर खुला छोड़ दिया गया ताकि वह अपनी आदत औऱ  प्राकृतिक आवश्यकता के अनुसार सुबह- शाम घूमने निकल सके। 

गाड़ी में बैठ तो गए किंतु सभी को नीलू की ही चिंता घेरे थी विशेष तौर से बंटी को।परंतु मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है और मजबूरी वश उसे कई अवांछित कार्य करने पड़ते हैं। घर से निकलते वक़्त नीलू का बार -बार भौंकना सब को परेशान कर रहा था। मानो वह सबसे शिकायत कर रही हो कि सभी उसे अकेला छोड़कर कहाँ जा रहे हैं।आखिर एक मूक प्राणी अपने मन की बात को बताए भी तो कैसे ...यही सोचकर सबके मन में एक अपराधबोध उत्पन्न हो रहा था।

गाँव पहुँच कर सब विवाह के रीति रिवाजों में व्यस्त हो गए। फिर भी रह-रहकर सबका ध्यान नीलू की ओर चला ही जाता था।शादी की सारी औपचारिकताओं को निभाकर एक पखवाड़े बाद सब लौट आए।

  टैक्सी घर के सामने रुकी ही थी कि नीलू से मिलने की आस में बंटी सीधा बरामदे की ओर दौड़ा।परंतु नीलू  बरामदे से नदारद थी।उसे वहाँ न पाकर वह इधर- उधर खोजने लगा।

"नीलू...नीलू....कहाँ हो....नीलू... पापा.. माँ.. नीलू कहीं दिखाई नहीं दे रही... पापा ... देखो न ...नीलू कहीं नहीं दिखाई दे रही।" -बंटी बेचैन हो उठा।

"बंटी ..बेटा... नीलू यहीं कहीं होगी ...तुम चिंता मत करो ....देखो.... उस तरफ देखो..हो सकता है बाहर  गई हो.. आ जाएगी थोड़ी देर में घूम-फिरकर।-" माँ ने बंटी को समझाने का प्रयास किया।

सब अपने कामों में व्यस्त हो गए परंतु बंटी  खिड़की से बाहर अपनी नजरे गड़ाए अनमना - सा सोफ़े पर ही बैठा रहा।उसका मन कहीं नहीं लग रहा था।

सूर्य अस्तांचल पर था।धीरे- धीरे अँधेरा भी गहराता जा रहा था पर नीलू  की अब तक कोई खबर न थी। काफी देर हो चुकी थी।सबकी व्याकुलता भी चरम सीमा पर  थी । इसलिए बंटी और सुभाष जी अपनी आवासीय कॉलोनी के आस -पास की सभी संभावित स्थानों पर उसे तलाशने निकल गए । काफ़ी देर तक खोजने के बाद भी जब नीलू का कुछ पता न चला तो थक हार कर  दोनों वापस लौट आए।
बंटी का मासूम दिल नीलू को देखने के लिए व्यग्र था।नीलू की याद में उस रात बंटी ने एक निवाला भी अपने गले से नीचे नहीं उतारा और रोते -रोते वही  सोफ़े पर ही सो गया।सबने उसे मनाने का भरसक प्रयास किया परंतु सब व्यर्थ । 
 व्यग्रता में जैसे -तैसे रात तो बीत गई पर मन के मलाल के कारण कोई  ढंग से सो न सका।
भोर होते ही प्रतिदिन की भाँति सुभाष जी जब जॉगिंग के लिए पार्क में गए तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। एक आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता उनके चेहरे पर आ गई। फिर  कुछ ही पलों में न जाने क्या सोचकर उनके चेहरे के भाव बदल गए और उनकी आँख से भर -भर आँसू बहने लगे। यह ख़ुशी के आँसू  थे। वह खुशी जो किसी बहुत अपने के मिल जाने पर ही होती है। 

नीलू सुभाष जी के सामने थी।जैसे ही उसकी नजर सुभाष जी पर पड़ी ।तीव्र गति से दौड़ती हुई वह उनके पास आ गई और उन्हें जीभ से चाट -चाटकर वह अपना प्यार जताने लगी।सुभाष जी ने उसके शरीर पर जैसे ही अपना स्नेहसिक्त हाथ फेरा नीलू भौंकने लगी।मानो वह उनसे शिकायत कर रही हो कि उसे छोड़कर सब कहाँ चले गए थे।"

"श्रीवास्तव जी ,मैं बता नहीं सकता कि आपने मुझे आज कितनी ख़ुशी दी है।मैं जिंदगीभर आपका यह उपकार नहीं भूलूँगा।परंतु यह आप के पास कैसे..." दोनों हाथ जोड़कर सुभाष जी ने श्रीवास्तव जी को धन्यवाद देते हुए प्रश्न किया।


" भाईसाहब.. यूँ हाथ जोड़कर आप मुझे शर्मिंदा न करें..बस.. इंसानियत की भावना के नाते ही मैंने यह सब किया।आपके जाने के कुछ दिनों बाद जब मैं  मनीला से लौटा तो  मैंने पाया कि नीलू लगातार भौंके जा रही थी। काफी देर तक जब मुझे कुछ समझ न आया तो मैं आपके घर आ गया ।देखा कि घर पर नीलू के अलावा और कोई भी नहीं था । दरवाजे पर  भी ताला लटक रहा था।  कई दिनों से खाना न मिलने के कारण यह बहुत कमजोर हो गई थी और उदास भी लग रही थी।इसलिए मैं उसे अपने घर ले आया।मुझे नहीं पता था कि आप आ गए हैं ।वरना मैं खुद ही इसे..."


"अरे नहीं.. नहीं .. श्रीवास्तव जी..ऐसा मत कहिए। मैं तो आपका बहुत आभारी हूँ कि मेरी गैरमौजूदगी में आपने इस की इतनी अच्छी तरह देखभाल की। मेरे ऊपर तो आपका कर्ज़ चढ़ गया है।मैं तो इसके मिलने की उम्मीद ही खो चुका था। मैं आपको बता नहीं सकता कि मेरा बंटी इसे देखकर कितना खुश होगा.. अच्छा अब आज्ञा दीजिए।" -हाथ जोड़कर उन्होंने श्रीवास्तव जी से जाने की आज्ञा माँगी ।
और अपनी जॉगिंग भूलकर तीव्र गति से ख़ुशी - ख़ुशी अपने घर की ओर चल दिये। आज उनका परिवार फिर से पूरा हो गया था।

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 22 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  2. आपके इस ब्लॉग के बारे में तो पता ही नहीं था सुधाजी, यशोदा दी का भी धन्यवाद जिनके मुखरित मौन की वजह से यह पढ़ने को मिला। बहुत सुंदर कहानी है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मीनाजी प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार आपका।

      हटाएं
  3. वाह!सुधा जी ,बहुत खूबसूरत कहानी ।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर कहानी, सुधा दी।

    जवाब देंहटाएं

पाठक की टिप्पणियाँ लेखकों का मनोबल बढ़ाती हैं। कृपया अपनी स्नेहिल प्रतिक्रियाओं से वंचित न रखें। कैसा लगा अवश्य सूचित करें👇☝️ धन्यवाद।।

वह पीला बैग

"भाभी यह बैग कितना अच्छा है!! कितने में मिला?" नित्या की कामवाली मंगलाबाई ने सोफे पर पड़े हुए बैग की तरफ लालचाई नजरों से इशार...