बुधवार, 30 अक्टूबर 2019

गुनगुनी धूप... कहानी



Gunguni dhup
गुनगुनी धूप 

अपने स्कूल की कबड्डी टीम की कैप्टन, बैडमिंटन में माहिर, साईंस एक्सिबिशन और कक्षा में सदा प्रथम आने वाली शालू बचपन से ही पढ़ाई में बहुत होशियार और मेधा की धनी थी। स्टेज पर जाती तो कमाल कर देती। नाटक के हर संवाद उसे जुबानी याद होते और सब उसकी प्रतिभा का लोहा मानते। उसके घर का एक कोना उसके सर्टिफिकेट , मेडल्‍स और शील्ड के लिया निर्धारित था।शालू के माता पिता ओपन - डे पर जब भी स्कूल जाते बोर्ड पर उसका नाम देखकर फूले न समाते।

कक्षा के बाकी बच्चों के अभिभावक जब उनके सामने ही शालू की ओर इशारा करते हुए अपने बच्चों को डांँटते, " उसके कैसे  इतने अच्छे नंबर आए, वो तो कोई ट्यूशन भी नहीं जाती, कुछ सीख उससे।"तब अपनी होनहार बेटी की तारीफें सुन कर उनकी छाती और चौड़ी हो जाती ।

शालू शिक्षकों की लाडली तो थी ही ।उसके अच्छे स्वभाव के कारण कक्षा के सब बच्चे भी उससे बहुत प्यार करते थे। दसवीं और बारहवीं दोनों की बोर्ड परीक्षाओं में लगातार जब उसने बिना किसी बाहरी सहायता अथवा ट्यूशन के 94 प्रतिशत अंक हासिल किए तो उसे और उसके माता - पिता को बधाई देने के लिए हर जगह से फोन आने लगे। अपनी खुशी जाहिर करने के लिए उन्होंने सबमें मिठाइयाँ बांटी। उन्हें लगने लगा था कि शालू का डॉक्टर बनने का बचपन का सपना अब जरूर पूरा हो जाएगा परंतु ईश्वर को शायद कुछ और ही मंजूर था।

निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से होने के कारण  मेडिकल की प्रवेश परीक्षा नीट के लिए भी उसके माता- पिता उसकी ट्यूशन नहीं लगवा सके थे। फिर भी दिन रात कठिन परिश्रम करके प्रवेश परीक्षा में उसने काफी अच्छे अंक हासिल किए। जो आरक्षित वर्ग के  विद्यार्थियों लिए निर्धारित अंकों से कहीं ज्यादा थे।

अनारक्षित सवर्ण वर्ग व सामान्य श्रेणी के विद्यार्थियों के लिए निर्धारित अंकों से मात्र दस अंक कम होने पर भी उसे किसी मेडिकल कॉलेज में दाखिला नहीं मिला।

लगातार महंगी होती पढ़ाई और आर्थिक पक्ष कमजोर होने के कारण शालू के माता - पिता अपनी बेटी के लिए किसी भी निजी मेडिकल कॉलेज में लाखों की रूपयों की सीट खरीदने में असमर्थ  रहे। तकरीबन हर मेडिकल कॉलेज में उसे यही सुनने को मिलता कि "इतने कम अंकों में तुम्हें महाराष्ट्र में तो किसी मेडिकल कॉलेज में दाखिला नहीं मिलेगा। जाओ अगले साल इससे अच्छे अंक लाना तब देखेंगे। "

आज प्रतिभा ने आरक्षण के आगे घुटने टेक दिए थे।जिसने भी सुना उसने दाँतों तले उंगली दबा ली कि मात्र दस अंकों के कारण उसका सपना चूर - चूर हो गया। शालू अब धीरे - धीरे निराश होने लगी थी।परंतु उसके हौसले टूटे नहीं थे। 

पैसों के आगे प्रतिभा कोई मोल नहीं। वह जानती थी कि माता - पिता उसकी नीट की ट्यूशन फीस नहीं भर सकते इसलिए वह अगले साल तक नहीं रुक सकती थी।

शालू ने माता- पिता से सलाह लेकर बिना एक भी वर्ष गंँवाए विज्ञान से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। उसमें भी अव्वल दर्जे से पास हुई।

शालू का बचपन का स्वप्न आरक्षण की बलि चढ़ चुका था।पर जीवन की खुशनुमा गुनगुनी धूप की चाह रखने वाली शालू ने अब एक नया सपना देखा है। अब वह सिविल सर्विसेस में जाना चाहती है और जिसके लिए वह दिन- रात मेहनत कर रही है।उसके हौंसले अब भी बरकरार है परंतु उसे वही डर फिर से सता रहा है कि दोबारा उसके और उसको सपनों के बीच आरक्षण दीवार बनकर न खड़ी हो जाए।

(मित्रों, यह कहानी कोरी कल्पना नहीं अपितु हकीकत का ताना बाना है)


दोषी कौन ?.... लघुकथा

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                                           दोषी कौन



      समीर और उसकी पत्नी स्वाति प्रतिदिन होनेवाली कलह और झिकझिक के कारण घर से अलग होकर एक किराए के मकान में रहने लगे थे। परंतु शर्मा जी अपने बेटे और बहू के घर से अलग होने का पूरा दोष हमेशा अपनी बहू स्वाति व उसके मायके वालों पर लगाते रहते थे। गाहे- बगाहे फोन कर के अपने समधी और समधन जी को खूब खरी- खोटी भी सुनाया करते थे ।    

  एक बार संयोग कुछ ऐसा बना कि किसी रिश्तेदार की शादी में दोनों परिवारों की मुलाकात हो गई। नमस्कार वाली आपसी औपचारिकताएँ भी दोनों ओर से पूर्ण की गयीं।  

  उस समय स्वाति की डेढ़ साल की बेटी अपनी नानी की गोद में ही थी। शर्मा जी को उन्हें भला- बुरा कहने का एक और मौका मिल गया। भला इस सुनहरे मौके को वे हाथ से कैसे जाने देते! एक कुटिल मुस्कान फेंकते हुए अपने चिर- परिचित अंदाज़ में उन्होंने फिर तंज कसा, "क्यों भाभी जी, अपनी नातिन को गोद में खिलाने में कितना मज़ा रहा है न!" - अपने ससुर की यह बात सुनकर स्वाति मन ही मन खीझ गई! स्वाति की माँ को भी बहुत बुरा लगा।  

" हाँ भाई साहब! आप से बेहतर और कौन जानता होगा कि अपनी नातिन को अपनी गोद में खिलाने मेें कितना आनंद मिलता है! " स्वाति की माँ ने प्रिया की दो साल की नन्हीं मासूम बेटी की ओर इशारे करते हुए कहा जिसे उस समय शर्मा जी ने अपनी गोद में ही उठा रखा था। 

शर्माजी की भौंहे तन गईं। पर कुछ बोल न सके और चेहरे पर झूठी मुस्कान सजाए, वहाँ से चल दिये। आखिर वे बोलते भी तो क्या!! अपने पति और ससुराल वालों से झगड़ा हो जाने के कारण तलाक का नोटिस देकर उनकी बेटी प्रिया भी तो पिछले दो सालों से अपने मायके में ही बैठी थी। 

वह पीला बैग

"भाभी यह बैग कितना अच्छा है!! कितने में मिला?" नित्या की कामवाली मंगलाबाई ने सोफे पर पड़े हुए बैग की तरफ लालचाई नजरों से इशार...