रविवार, 14 अप्रैल 2019

वाई-फाई


वाई-फाई खत्म हो गया था और कुछ तंगी भी चल रही थी. बेटे के बार - बार कहने पर भी जब माँ ने वाई-फाई  रीचार्ज नहीं करवाया. तो माँ से उनके मोबाइल का हॉटस्पॉट मांगने लगा.माँ ने सोचा पूरा दिन पबजी खेलता है, इसी बहाने कुछ दिन तो रात में जल्दी सो जाया करेगा इसलिए माँ ने जब हॉटस्पॉट देने से भी मना कर दिया, तो बेटा तमतमाकर बोला, "भाड़ में जाओ."
उस दिन मां बिलख - बिलख कर रोई.
बच्चों को सभी सुख-सुविधाएँ आसानी से मुहैया करा देने का क्या यही परिणाम होता है??

##(100 शब्दों की कहानी)##

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

वह पीला बैग



"भाभी यह बैग कितना अच्छा है!! कितने में मिला?" नित्या की कामवाली मंगलाबाई ने सोफे पर पड़े हुए बैग की तरफ लालचाई नजरों से इशारा करते हुए जब उससे यह कहा तो उसने भी अनमने ढंग से उसकी हाँ में हाँ मिला दी और अपने काम में जुट गई।

वह पीले रंग का बैकपैक कल ही उसके फेयरवेल में उसकी बॉस ने उसे उपहार में दिया था। नित्या से तकरीबन दोगुना अधिक वेतनमान पानेवाली उसकी बॉस का उसके प्रति ऐसा व्यवहार देखकर वह वैसे ही दुखी थी.
  "बेवजह कभी छुट्टी भी नहीं ली मैंने। दफ्तर का काम हर रोज घर पर ले आती थी इसलिए पति और बच्चों की डांट भी खाती थी। मेरा प्रतिदिन का ओवरटाइम करना भी उनको याद नहीं रहा। हाँ बस बाकियों की तरह चाटुकारिता करने में पिछड़ गई थी। कदाचित् यही कारण रहा होगा कि इतने वर्षों के पूर्ण समर्पण और सेवाभाव के बाद भी मेरी बॉस ने मुझे ऐसा प्रतिफल दिया था। मैं उनके लिए केवल एक कर्मचारी थी... उनकी अधीनस्थ कर्मचारी बस! और कुछ नहीं???

मिसेज शर्मा के फेयरवेल में तो उन्होंने क्या- क्या नहीं किया। पूरा ऑफिस, दो हफ्ते पहले से ही उनके फेयरवेल की तैयारी में जुट गया था. कितनी सारी प्लानिंग की थी ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे.बाकायदा दावत भी दी गई थी और उम्मीद से परे, फेयरवेल का कार्यक्रम इतना अच्छा हुआ कि कोई सोच भी नहीं सकता।

गिफ्ट को देखते ही बच्चों ने भी मुँह बिचका लिया था। "दो सौ, तीन सौ से ज्यादा की कीमत नहीं होगी इसकी। मुझे कोई ऐसी गिफ्ट दे तो मैं तो बिलकुल न लूँ मम्मी।" - कहते हुए उसकी बेटी ने बैग को एक किनारे लगा दिया। " मम्मी, मुझे तो लगता है कि उनकी बेटी को ये गिफ्ट मिला होगा और इतना गाढ़ा पीला रंग और इसकी खराब क्वॉलिटी देखकर उन्होंने आपके गले लगा दिया।" - नित्या की छोटी बेटी ने सारा गणित लगा लिया था।
 फिर तपाक से बोली, "मम्मी, अब केवल एक काम हो सकता है इसका। देखिए! न आप को यह पसंद है और न ही मुझे। यह टीनेज बच्चों वाला रंग बच्चों पर ही जंँचता है। तो क्यों न हम किसी बच्चे के बर्थडे पर इसे गिफ्ट कर दें? "उसकी बात मुझे कुछ अटपटी - सी लगी। जो चीज मुझे पसंद नहीं!.. वह दूसरे को पसंद आएगी??? न, न, मुझे नहीं अच्छा लगेगा। और मैं इतनी ओछी हरकत नहीं कर सकती। "

"तो ठीक है.. अब आप ही सोचिए कि आपको इसका करना क्या है। " कहते हुए बेटी अपने कमरे की ओर चल दी।

शायद यही कारण था कि कल जब बाकी सहकर्मी मुझपर अपने - अपने गिफ्ट खोलने के लिए दबाव बना रहे थे तो उन्होंने तुरंत मना कर दिया था कि कोई गिफ्ट नहीं खुलेगा। बड़े प्यार भरे लहजे में मेरी ओर अपनी मुस्कुराहट फेंकते हुए बोली थी -" वह इसे घर ले जाएगी और अपने पति और बच्चों के सामने खोलेगी। "
पति और बच्चे क्या सोचते होंगे मेरे बारे में? उनकी नजरों में क्या मेरी यही कीमत थी। यदि फेरवेल देने की इच्छा नहीं थी तो न देती। सबके सामने यूँ दिखावा करने की क्या जरूरत थी, मैंने तो नहीं कहा था कि मुझे फेयरवेल चाहिए। क्यों मेरी भावनाओं के साथ उन्होंने खिलवाड़ किया। मुझसे कितनी ही बार बच्चों ने कहा था मम्मी इतना अटैच मत होइए। पति ने भी समझाया, "नित्या, थोड़ा प्रैक्टिकली सोचो. तुम्हारी बॉस, और तुम्हारे उसूल तुम्हें कभी आगे नहीं बढ़ने देंगे। तुम देख क्यों नहीं पा रही हो कि तुम्हारे बाद के आये हुए लोग कितना आगे बढ़ गए और तुम आज भी वहीं हो जहाँ पहले दिन थी। इतने कम वेतन में काम मत करो, कहीं और देखो तुम्हें इतना अनुभव है... किसी न किसी अच्छी कंपनी में तो लग ही जाओगी। "
नित्या भीतर ही भीतर कुढ़ रही थी। खुद को
ठगा हुआ महसूस कर रही थी।

उनके बार - बार समझाने पर भी क्यों मैंने उनकी बात नहीं मानी। क्यों मैंने बहुत पहले ही अपनी नौकरी नहीं छोड़ दी। मैं उनकी असलियत को भांँप नहीं पाई... और इतनी लगन से काम करती रही।"
 बॉस ने कितनी ही बार नौकरी छोड़ने का इशारा किया था परंतु नित्या ने कभी संजीदगी से इस बात पर ध्यान नहीं दिया था उसे लगता कि गलती करने पर डांट पड़ रही है।
नित्या को खुद पर बहुत क्रोध आ रहा था कि क्यों वह यह समझने में नाकाम रही कि जो उनकी चापलूसी करता है वही यहाँ लंबे समय तक टिका रहता है और उसे तरक्की पर तरक्की मिलती जाती है। मुझ जैसा अनाड़ी केवल कोल्हू के बैल की तरह नधा - नधा, सिर झुकाए अपना काम करता रहता है। और अंत में उसके पास होता है शून्य, बस शून्य। अपने इसी उधेड़बुन में नित्या आधी रात तक करवटें बदलती रही। नींद ने कब उसे आगोश में ले लिया, उसे पता ही नहीं।

भाभी, भाभी कहाँ खो गई, बोलिए न... सहसा कानों में मंगलाबाई की आवाज पड़ते ही नित्या की तंद्रा भंग हुई। "भाभी, मेरी नातिन भी कई दिनों से ऐसा ही बैग खरीदने के लिए जिद कर रही है। मैंने सोचा है कि इस बार की पगार से उसको ऐसा बैग खरीदकर दे दूंगी। कितनी खुश हो जाएगी वह। अगले हफ्ते उसका जन्मदिन भी है। " मंगलाबाई सस्मित बोले जा रही थी और नित्या उसके चेहरे पर उभरते हुए भावों को पढ़ रही थी।
शायद उसे समझ में आ गया था कि उसे इस बैग का क्या करना है।

मंगलाबाई, तुम्हें बैग खरीदने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें यह बैग पसंद आया है न। तो.. तुम्हारी नातिन के लिए मेरी ओर से यह छोटी - सी भेंट! कहते हुए नित्या ने उसे वह बैग पकड़ा दिया।
भाभी, आप कितनी अच्छी हैं..मैं... मैं बता नहीं सकती कि मेरी नातिन इसे पाकर कितनी खुश होगी।
  चेहरे पर मुस्कान समेटे हुए, और न जाने क्या - क्या सोचते हुए वह तेजी से अपने काम में जुट गई।
उसके चेहरे की मुस्कुराहट देखकर नित्या को एक अजीब से सुख की अनुभूति हो रही थी। थोड़ी देर के लिए ही सही पर अपनी बॉस की ओछी सोच के आवरण से बाहर निकल पाने में कामयाब हुई थी नित्या।

सुधा सिंह 📝


PS :यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है केवल स्थान व पात्रों के नाम बदले गए हैं.


सोमवार, 1 अप्रैल 2019

रीढ़ की हड्डी.. लघुकथा


  एक दिन नटवरलाल जी चलते - चलते दफ्तर में अचानक से गिर पड़े, तो दो चार क्लर्क उठाकर उन्हें अस्पताल ले गए. डॉक्टर ने जाँच करने के बाद कहा कि इनकी रीढ़ की हड्डी कमजोर हो गई है, प्रतिदिन तन कर चलने की कसरत करेंगे तो रीढ़ की हड्डी फिर से ठीक हो जाएगी. कहीं ये ज्यादा झुके- झुके तो काम नहीं करते ?

 तभी अचानक पास ही खड़ा उनका एक सह कर्मचारी दूसरे कर्मचारियों की ओर देखते हुए बोल पड़ा, "डॉक्टर साहब, काश यह गुण हममें भी होता.. आज हम भी इनके जैसे बड़े पद पर बैठे होते.
डॉक्टर साहब अवाक् थे.

सुधा सिंह 👩‍💻

(100 शब्दों की कहानी)

आनंद लीजिए 'रात की थाली ' का भी

गुरुवार, 28 मार्च 2019

संतरे के छिलके....


संतरे के छिलके...



शाम के पांच बज रहे थे। एक विशेष सरकारी काम से मैं और मेरे साथ मेरी दो सह- शिक्षिकाएं ठाणे से लौट रही थीं।ट्रेन प्लैटफॉर्म पर लगी हुई है यह देखकर हम खुश हो गए कि चलो अच्छा है, अब ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा। किस्मत भी अच्छी थी कि ट्रेन में चढ़ते ही खाली सीट भी मिल गई। हमारे सामने की ही सीट पर एक महिला भी अपनी नौ दस साल की लड़की के साथ सफर कर रही थी।केवल तीन ही स्टेशनों के बाद उसे उतरना भी था।

ट्रेन चलते ही कई फेरीवाले अपना -अपना सामान बेचते हुए हमारे सामने से गुजरे। परंतु पंद्रह मिनट के इस सफर में कोई भी फेरीवाला ऐसा न था , जिससे उस महिला ने कुछ खरीदा न हो। मोल - भाव करके एक संतरे वाले से उसने दस रुपए के तीन सन्तरे भी खरीद लिए। दो सन्तरे बेटी को पकड़ाकर तीसरा वह खुद खाने लगी।

 जैसे ही संतरे ख़त्म हुए,उसने सारे छिलके एक झटके में ट्रेन की खिड़की से पार कर दिए न आव देखा, न ताव । और फिर जैसे अनजान बनकर सबसे आँखें बचाती हुई अपने पर्स में कुछ ढूँढने लगी। इस बीच उसकी बेटी ने भी सन्तरे खा लिए थे पर असमंजस में बैठी थी कि छिलकों का किया क्या जाए... शायद स्कूल में दी जाने वाली शिक्षा और माननीय श्री मोदी जी के स्वच्छ भारत अभियान का असर उस पर इतना तो हुआ ही था कि वह छिलकों को ट्रेन की खिड़की से बाहर फेंकने से हिचकिचा रही थी और यह भी समझ रही थी उसके ऊपर कभी -कभार हमारी नजर भी चली जा रही है। बहरहाल , थोड़ी देर तक जब उसे कुछ नहीं सूझा तो उसने अपने छिलके भी अपनी माँ को पकड़ा दिए और माँ ने इस बार भी अपने उसी अंदाज में छिलकों को उसके अंतिम गन्तव्य तक पहुँचा दिया। बेटी बगले झाँकने लगी और हम तीनों निशब्द... कहते क्या । बस एक दूसरे का मुँह ताकते रह गए।

सुधा सिंह 👩‍💻

रविवार, 3 फ़रवरी 2019

मुग़ल- ए - आज़म


मुगल- ए- आज़म ....
  चोरी कर रही थी मैं। अच्छा हुआ किसी ने देखा नहीं। सबकी आंखों से बच - बचाकर एक ऐंटीक मूर्ति, मोतियों का बड़ा सुन्दर- सा हार, बेशकीमती पत्थर उठा लिया था मैंने। पर मेरी सह - शिक्षिका ने और भी बेशकीमती वस्तुओं पर हाथ मारा था। पहली बार मैंने चोरी की थी वह भी उसी सह - शिक्षिका से प्रभावित हो कर।
जब मैंने उसे  निडरता से वस्तुओं को उठाकर अपने थैले में रखते देखा, तो मैंने उसे टोका,- "यह क्या कर रही हो, किसी ने देख लिया तो?
सह शिक्षिका (चिढ़ कर)- " अंह... कोई कुछ नहीं कहेगा। हम चोरी थोड़े ही कर रहे हैं। "
अपनी स्मित रेखा के साथ उसने प्रत्युत्तर दिया -" हम अपने घर में इन्हें सजाएँगे। ये सब हमारा ही तो है। उन्होंने भारत पर आक्रमण करके हमसे लूटा था। भारतीयों ने कितना कुछ सहा है l पता है न!!! "

-जैसे किसी बच्चे को समझाते हैं उसी तरह वह मुझे समझा रही थी।
मैं सहमत थी अपनी सहकर्मी की बात से। मैंने भी सोचा कि बात तो सही है। मैं कोई गलत काम नहीं कर रही हूँ । इन सब पर हमारा ही तो अधिकार है। भारत मुगलों का थोड़े ही था। हम भारतीयों का था। मुझमें इतना साहस भर गया था कि जैसे मैं कोई वीरता का कार्य कर रही थी।

किला, राजमहल अब संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है। वह दीवार जहाँ अनारकली को जिंदा चुनवा दिया गया था। सब दर्शनीय था। खूबसूरत इतना कि आगे बढ़ने का मन ही नहीं हो रहा था। सबकुछ मन मोहक। 

हमारे साथ विद्यालय से शैक्षणिक यात्रा पर आए बच्चे अपने - अपने समूह में इस यात्रा का आनंद ले रहे थे। वे आगे थे। हम उनसे थोड़ा पीछे रह गए थे। इसलिए हमने भी अवसर का लाभ उठा लिया था ।

 बस यही डर था कि बच्चे हमें चोरी करते हुए पकड़ न ले। वे तो हमें चोर ही समझेंगे। उनपर हमारा कितना गलत प्रभाव पड़ेगा। उन्हें कैसे समझाएंगे कि हम कुछ गलत नहीं कर रहे हैं। मन में ढेरों ऐसे प्रश्न उठ रहे थे। 
अकस्मात ट्रींग..ट्रींग... की आवाज हुई और मेरी तन्द्रा टूटी। 

यह क्या.... मैं सपना देख रही थी। मुग़ल-ए - आज़म देखते- देखते कब नींद की आगोश में चली गई थी पता ही नहीं चला।

अपनी पहली चोरी और मुग़ल-ए- आज़म के बीच की कड़ी के बारे में सोच - सोचकर हँसी आ रही थी मुझे। 😊😊

वह पीला बैग

"भाभी यह बैग कितना अच्छा है!! कितने में मिला?" नित्या की कामवाली मंगलाबाई ने सोफे पर पड़े हुए बैग की तरफ लालचाई नजरों से इशार...