गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

सास धर्म... लघुकथा

सास धर्म 


एक वर्ष के दुधमुंहे बालक की नजर एकाएक जब अपनी दादी की छाती पर पड़ी तो दूध पीने चाहत में व‍ह उनकी छाती को बार - बार स्पर्श करने लगा। यह देख दादी ने  कहा, "एनकर चाचा - बाप त ऐसन नाय रहेन,लागत आ ननिअउरे
पड़ि गएन. "( इसके चाचा और पिता ऐसे नहीं थे, लगता है ननिहाल में किसी को पड़ गया है।)
पालने में ही अपने साल भर के नन्हें- मुन्हें पोते के चरित्र का विश्लेषण करते-करते अधरों पर कुटिल मुस्कान लिए सास ने एक बार फिर से बहू को सताने का अपना सास धर्म निभा दिया था । आँखों में अश्रु लिए अपने साड़ी के कोरों को मसलती हुई असहाय बहू मन मसोस कर पति और ससुर से शिकायत के डर से चुप चाप रसोई में चल दी.

शनिवार, 21 दिसंबर 2019

ये कैसा मापदंड



ये कैसा मापदंड.....
ये कैसा मापदंड...



ये कैसा मापदंड..

नये साल की शुभकामनाएँ देने के लिए ऊर्जा ने जब अपनी सास को फोन किया तो बातों- बातों में उसने महसूस किया कि उनका मूड कुछ उखड़ा उखड़ा - सा है।
मिसाल तो वे अपनी बेटी प्रतिमा की दे रही थी पर उनका इशारा ऊर्जा की तरफ ही था। उलाहना भरे स्वर में वे प्रतिमा की शिकायत करने लगी।
कहने लगी - "प्रतिमा ने भी अभी तीन बजे दोपहर को फोन करके मुझे नए साल की बधाई दी।अपनी बातों पर थोड़ा अधिक जोर देते हुए वे कहने लगी- "मैंने कहा कि नए साल की बधाई देने के लिए, तुम्हारी बुआ का फोन सुबह छह बजे ही आ गया, जबकि वो ननद है मेरी, और तुम, बेटी होकर भी मुझे इतनी देर से फोन कर रही हो। "
तो प्रतिमा कहने लगी - " नहीं... मम्मी , ऐसी कोई बात नहीं है। सुबह से काम में इतनी व्यस्त थी कि समय ही नहीं निकाल पाई। अब जाकर काम से फुर्सत पाई हूँ तो सबसे पहले आप को ही फ़ोन लगाया है। " बेचारी प्रतिमा, उसकी विवशता मैं समझ सकती हूँ - बेटी का पक्ष लेते हुए उन्होंने ऊर्जा की गलती की तरफ इशारा कर दिया. बेचारी ऊर्जा कुछ बोल न सकी और चुपचाप अपनी सास की उलाहना सुनती रही.
फोन रखने के पश्चात ऊर्जा सोचने लगी कि सासू माँ को तीज- त्योहार, होली- दिवाली आदि मौकों पर कोई फोन न करे तो उन्हें बहुत बुरा लगता है। मैं भी तो उनकी तरह ही घर की बड़ी बहू हूँ। उन्होंने कहाँ अपनी बेटी को सिखा दिया कि वह भी बड़े भाई - भाभी को तीज - त्योहार, मौके - धौके पर फोन कर लिया करे। वह तो कभी नहीं करती। हर बार मुझे ही करना ही पड़ता है और किसी मौके पर यदि बुआ फोन न करे तो उन्हें बुरा लग जाता है।
वाह रे! कैसे अजीब मापदंड है ये!!! अपने लिए अलग और दूसरों के लिए अलग!!!

रविवार, 15 दिसंबर 2019

रिश्तों का मोल



 एक ओर सर्दी और ज़ुकाम ;ऊपर से शरीर का तेज ताप । लगातार दो दिनों से रीमा का बुखार चढ़ - उतर रहा था।इसलिए उसने सोचा कि वह अपनी छोटी बहन डॉक्टर अभिधा से दवा ले लेगी और इसी बहाने उससे मुलाकात भी हो जाएगी ।साथ ही साथ व‍ह अपनी छोटी बहन के साथ कुछ अच्छे सुखद क्षणों को साझा भी कर लेगी। एक पंथ दो काज हो जाएंगे। वैसे भी अभिधा की व्यस्तता के कारण रीमा को उससे मिले तकरीबन पांच छः महीनों से ऊपर हो गया था। उसका क्लिनिक रीमा के घर से कुछ तीन चार किलोमीटर की दूरी पर ही था। इसलिए रीमा अकेली ही ऑटोरिक्शा लेकर उसके क्लिनिक पहुँच गई ।

जब व‍ह उसके क्लिनिक पहुँची तो कम्पाउन्डर ने उसे बताया कि डॉक्टर के कैबिन में पहले से ही एक स्किन पेशेंट मौजूद है । इसलिए व‍ह नहीं जा सकती। रीमा ने सोचा कि थोड़ी देर में शायद उस स्किन पेशेंट से फुर्सत पाकर व‍ह उसे स्वयं अपनी कैबिन में बुला लेगी या खुद ही उससे मिलने कैबिन से बाहर चली आएगी। परंतु जैसा व‍ह सोच रही थी वैसा कुछ नहीं हुआ।
 रीमा का बदन बुखार से खूब तप रहा था। इसी कारण उसे बहुत कमज़ोरी भी महसूस हो रही थी। उससे ठीक से बैठा नहीं जा रहा था। फिर भी वह न जाने क्या सोच कर काफी देर तक बैठी रही । उसने सिर उठाकर दीवार की ओर देखा ।घड़ी की सुई नौ बजा रही थी । एक घंटे से ऊपर हो गए थे। रीमा से अब और बैठा नहीं जा रहा था।इसलिए उसने कम्पाउन्डर से कहलवा भेजा कि जाओ कह दो दीदी को तेज बुखार है सर्दी खांसी भी है तो उसकी दवा दे दे। उसने सोचा शायद यह सुनकर ही वह बाहर आ जाए कि दीदी की तबीयत खराब है।
 थोड़ी देर में कम्पाउन्डर भीतर से दवा लेकर लौटी और खुराक समझाते हुए रीमा के हाथ में दवा की पुड़िया थमा दी। रीमा को य़ह बात भीतर तक झकझोर गई कि जिस बहन को वह हमेशा अपने सीने से लगाए रहती थी। आज उसका व्यवहार कितना बदल गया है। तीन चार महीनों से न कोई बात ,न कोई फोन। यही सोचते - सोचते दुखी मन से व‍ह घर लौट आई। उसके मन में तसल्ली थी कि फोन करके अभिधा उसका कुशलक्षेम जरूर पूछेगी। आखिर वह एक डॉक्टर है और ऊपर से उसकी बहन।
 कुछ दिनों में दवाइयों की खुराक से रीमा की तबीयत तो ठीक हो गई परंतु न अभिधा का फोन आया और न अभिधा ही आई । रीमा के हृदय को गहरी चोट पहुँची। यह बात उसने पहले भी कई बार महसूस की थी कि कई दिनों से अभिधा उससे दूरी बना रही थी ।जब- जब रीमा ने उसे फ़ोन कर उससे बात करने की कोशिश की ,तब -तब उसके कंपाउंडर ने ही फोन उठाया और व्यस्तता का बहाना बनाकर फ़ोन काट दिया। उसके मन के किसी कोने में यह बात घर कर गई कि गरीबी सबसे बड़ी बीमारी है। इस बीमारी का कोई इलाज नहीं।जब तक य़ह बीमारी साथ रहती है तब तक अपने भी अपनों को नहीं पहचानते।
 औऱ अभिधा क़े इस व्यवहार ने भी अब इस बात की पुष्टि कर दी थी कि पैसों के आगे रिश्ते का कोई मोल नहीं होता।  

रविवार, 8 दिसंबर 2019

बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना.. लघुकथा





बच्चों के स्कूल की छुट्टियां अभी नहीं हुई थी.पतिदेव को अपने खास दोस्त के रिश्तेदार की शादी में जाना था.यूँ कह लीजिए बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना. सभी बस छुट्टियों का इंतजार कर रहे थे. परंतु शादी एक सप्ताह पहले की तय थी. पति जानता था कि घर में पता चला तो पत्नी जाने नहीं देगी.उन्होंने युक्ति लगाई. उस दिन आधी रात को शराब के नशे में चूर हो कर घर आए ताकि शराब पीकर आने पर पत्नी से झगड़ा हो और  युक्ति काम कर गई. घर में  झगड़ा हुआ पति देव अपना बैग पैक करके घर से निकल गए.

सुधा सिंह ✍️

(# 100 शब्दों की कहानी)


बुधवार, 30 अक्टूबर 2019

गुनगुनी धूप... कहानी



Gunguni dhup
गुनगुनी धूप 

अपने स्कूल की कबड्डी टीम की कैप्टन, बैडमिंटन में माहिर, साईंस एक्सिबिशन और कक्षा में सदा प्रथम आने वाली शालू बचपन से ही पढ़ाई में बहुत होशियार और मेधा की धनी थी। स्टेज पर जाती तो कमाल कर देती। नाटक के हर संवाद उसे जुबानी याद होते और सब उसकी प्रतिभा का लोहा मानते। उसके घर का एक कोना उसके सर्टिफिकेट , मेडल्‍स और शील्ड के लिया निर्धारित था।शालू के माता पिता ओपन - डे पर जब भी स्कूल जाते बोर्ड पर उसका नाम देखकर फूले न समाते।

कक्षा के बाकी बच्चों के अभिभावक जब उनके सामने ही शालू की ओर इशारा करते हुए अपने बच्चों को डांँटते, " उसके कैसे  इतने अच्छे नंबर आए, वो तो कोई ट्यूशन भी नहीं जाती, कुछ सीख उससे।"तब अपनी होनहार बेटी की तारीफें सुन कर उनकी छाती और चौड़ी हो जाती ।

शालू शिक्षकों की लाडली तो थी ही ।उसके अच्छे स्वभाव के कारण कक्षा के सब बच्चे भी उससे बहुत प्यार करते थे। दसवीं और बारहवीं दोनों की बोर्ड परीक्षाओं में लगातार जब उसने बिना किसी बाहरी सहायता अथवा ट्यूशन के 94 प्रतिशत अंक हासिल किए तो उसे और उसके माता - पिता को बधाई देने के लिए हर जगह से फोन आने लगे। अपनी खुशी जाहिर करने के लिए उन्होंने सबमें मिठाइयाँ बांटी। उन्हें लगने लगा था कि शालू का डॉक्टर बनने का बचपन का सपना अब जरूर पूरा हो जाएगा परंतु ईश्वर को शायद कुछ और ही मंजूर था।

निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से होने के कारण  मेडिकल की प्रवेश परीक्षा नीट के लिए भी उसके माता- पिता उसकी ट्यूशन नहीं लगवा सके थे। फिर भी दिन रात कठिन परिश्रम करके प्रवेश परीक्षा में उसने काफी अच्छे अंक हासिल किए। जो आरक्षित वर्ग के  विद्यार्थियों लिए निर्धारित अंकों से कहीं ज्यादा थे।

अनारक्षित सवर्ण वर्ग व सामान्य श्रेणी के विद्यार्थियों के लिए निर्धारित अंकों से मात्र दस अंक कम होने पर भी उसे किसी मेडिकल कॉलेज में दाखिला नहीं मिला।

लगातार महंगी होती पढ़ाई और आर्थिक पक्ष कमजोर होने के कारण शालू के माता - पिता अपनी बेटी के लिए किसी भी निजी मेडिकल कॉलेज में लाखों की रूपयों की सीट खरीदने में असमर्थ  रहे। तकरीबन हर मेडिकल कॉलेज में उसे यही सुनने को मिलता कि "इतने कम अंकों में तुम्हें महाराष्ट्र में तो किसी मेडिकल कॉलेज में दाखिला नहीं मिलेगा। जाओ अगले साल इससे अच्छे अंक लाना तब देखेंगे। "

आज प्रतिभा ने आरक्षण के आगे घुटने टेक दिए थे।जिसने भी सुना उसने दाँतों तले उंगली दबा ली कि मात्र दस अंकों के कारण उसका सपना चूर - चूर हो गया। शालू अब धीरे - धीरे निराश होने लगी थी।परंतु उसके हौसले टूटे नहीं थे। 

पैसों के आगे प्रतिभा कोई मोल नहीं। वह जानती थी कि माता - पिता उसकी नीट की ट्यूशन फीस नहीं भर सकते इसलिए वह अगले साल तक नहीं रुक सकती थी।

शालू ने माता- पिता से सलाह लेकर बिना एक भी वर्ष गंँवाए विज्ञान से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। उसमें भी अव्वल दर्जे से पास हुई।

शालू का बचपन का स्वप्न आरक्षण की बलि चढ़ चुका था।पर जीवन की खुशनुमा गुनगुनी धूप की चाह रखने वाली शालू ने अब एक नया सपना देखा है। अब वह सिविल सर्विसेस में जाना चाहती है और जिसके लिए वह दिन- रात मेहनत कर रही है।उसके हौंसले अब भी बरकरार है परंतु उसे वही डर फिर से सता रहा है कि दोबारा उसके और उसको सपनों के बीच आरक्षण दीवार बनकर न खड़ी हो जाए।

(मित्रों, यह कहानी कोरी कल्पना नहीं अपितु हकीकत का ताना बाना है)


वह पीला बैग

"भाभी यह बैग कितना अच्छा है!! कितने में मिला?" नित्या की कामवाली मंगलाबाई ने सोफे पर पड़े हुए बैग की तरफ लालचाई नजरों से इशार...