ससुराल में सभी बड़ों के आगे माथे पर पल्ला रखने का रिवाज था. यदा - कदा सिर से पल्ला खिसकने पर सास टोक देती। कहती, "देखो बहू, हमारे सामने भले ही सिर न ढको, पर पापाजी के सामने जरूर ढक लिया करो।
घर की रसोई में ही छोटा- सा मंदिर था।एक दिन सुबह नहा - धोकर ससुर जी रसोई घर में पूजा करने आये। उन्हें देखते ही गैस पर रोटी सेंकते हुए बहू ने सिर पर झट से पल्ला रख लिया। ससुर जी तमतमा गए। बोले "अभी कुछ उल्टा- सीधा हो गया तो दुनिया वाले कहेंगे कि बहू को जलाकर मार दिया।"
उस दिन उन्होंने बहू को गलत तो ठहरा दिया पर कभी उससे यह नहीं कहा कि सिर पर पल्ला न रखा करे।
स्व लिखित :
सुधा सिंह व्याघ्र 📝
(100 शब्दों की कहानी)
सटीक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआदरणीय आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर बहुत अच्छा लगा।सादर आभार।
हटाएंआदरणीया सुधा सिंह जी, बहुत कुछ कहती , लघुकथा के सारे मानकों पर खरी उतरती लघुकथा ! --ब्रजेन्द्र नाथ
जवाब देंहटाएंआदरणीय आपको अपने ब्लॉग पर देखकर प्रसन्नता हुई। उत्साहवर्धन करती आपकी इन पंक्तियों के लिए अनेकानेक धन्यवाद।सादर
हटाएंसुन्दर लघु-कथा। रूढ़ियों में जकड़ी स्त्री की कहानी को सटीकता से दर्शाया है। वो करे तो मुसीबत और न करे तो मुसीबत।
जवाब देंहटाएंरचना के भावों पर आपकी गहन दृष्टि से मेरी रचना सार्थक हुई। धन्यवाद आदरणीय ।आपका बहुत बहुत स्वागत है मेरे ब्लॉग पर।सादर
हटाएंरविन्द्र भाई चर्चा मंच में मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार ...न जाने कैसे मेरी निग़ाहों से ये आमंत्रण छूट गया । मैं आज देख रही हूं।आपसे क्षमा चाहती हूँ ।
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