लॉक डाउन के चलते प्रज्ञा का ऑफिस दो महीने से बंद था।
उस दिन अपने वीमेन्स होस्टल की छत पर अकेली खड़ी -खड़ी प्रज्ञा बाहर का नजारा देखकर बेचैन हो उठी। सूनी सड़कें , खाली गालियाँ , सुनसान बाज़ार मानो मुँह चिढ़ा रहे हों , " लो, तुमने जिस विकास के सपने देखे थे, वो अब तुम्हारे सामने है; सब कुछ तुम्हारी अपनी पसंद का,मेरी बनाई हुई दुनिया तो तुम्हें कभी अच्छी लगी ही नहीं ना.... अब जियो, अपनी बनाई हुई नयी दुनिया में । "
" नहीं.... नहीं ...मैंने तो कभी भी इस जीवन की अभिलाषा नहीं की थी ,जहाँ अपनों से दूर, सब ईंट - सीमेंट में पिंजरबद्ध हो जाएँ। सचमुच भागते- भागते....ये कहाँ पहुँच गई हूँ मैं। नहीं.. अब और यहाँ न रह पाऊँगी मैं। प्रकृति और हरियाली के बीच, खेतों- खलिहानों को फिर से जीवंत करने अब लौट जाऊँगी अपने गाँव। माँ.... पिताजी.... मैं जल्द ही अपना त्यागपत्र देकर आ रही हूँ आप सबके पास...हमेशा- हमेशा के लिए...।", जैसे किसी ने उसे ज़ोर- से गहरी निद्रा से झकझोर कर जगा दिया हो और वह तुरंत अपना सामान बांधने के लिए तीव्र गति से अपने कमरे की ओर चल दी।
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