बुधवार, 3 जून 2020

ठाकुर साहब



    जेठ का महीना था । रात्रि भोजन के बाद ठाकुरसाहब भी खा -पीकर सोने चले गए थे। किंतु इतनी गर्मी और उमस में भी वे न तो पंखा चला सकते थे और न ही ए.सी.। बिजली आपूर्ति दिन की पाली की थी सो दिन में आठ घंटे बिजली का निर्धारित कोटा पूरा हो चुका था। बेचैनी के कारण उन्हें ठीक से नींद नहीं आ रही थी । वे कभी इस करवट होते तो कभी उस करवट ।कभी पानी पीते;कभी उठकर कमरे में ही चहलकदमी करने लगते।परंतु नींद तो जैसे उनकी आँखों से कोसों दूर थी।सोने की हर कोशिश जब नाकाम हो गई तो उन्होंने लालटेन जलाई और बाहर की ताजी हवा में कुछ समय व्यतीत करने के इरादे से कमरे से बाहर निकल बरामदे में आ गए। काली गहरी रात; ऊपर से अमावस्या।चारों ओर नीरव सन्नाटा।दूर कहीं से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ से सन्नाटा टूटा।
तभी अचानक उन्हें अपने बगीचे में कुछ हलचल प्रतीत हुई।मानो बगीचे में कोई चल रहा हो । उन्हें पत्तियों के हिलने की आवाज सुनाई दी। परंतु हवा भी तो नहीं चल रही थी कि उस के जोर से पत्तियाँ हिल सकें।फिर क्या वजह हो सकती है ...
इसी आशंका में वे बरामदे से निकलकर बगीचे की ओर आगे बढ़े।
  उनके घर से एकदम लगकर ही उनका आम का बगीचा था सो लालटेन की रोशनी में वे धीरे- धीरे बगीचे में पहुँचे।
वहाँ का नजारा देखते उनके चेहरे की हवाइयां उड़ गईं।
पेड़ की शाखा से फाँसी का एक फंदा लटक रहा था जिसका गोल घेरा मँगरू की गर्दन को कसने के लिए बेताब था।
"ठाकुर बाबा ,आगे न बढ़ौ.....हमरे पास न आओ ... अरे,हम तंग आई ग हैं अपनी जिनगी से....आज हम लटक जाइब...तब जाइके माई -बाबू के करेजा के शांति मिली..." मँगरू गुस्से में बोला।

"अरे मंगरू...ये क्या कर रहे हो... पगला गए हो क्या बेटा ... निकालो अपने गले से ई फंदा...हमें बताओ कि क्या हुआ है... जो तुम इतना बड़ा कदम उठाने जा रहे थे... हम समझाएँगे तोहरे माइ बाबू को ... उ लोग मेरा बात थोड़ी न टालेंगे... भरोसा है न हमपर..." बात करते -करते ठाकुर साहब ने लालटेन को नीचे जमीन पर रख दिया और आगे बढ़कर  मँगरू की गर्दन से फंदे को निकालते हुए उसे समझाने लगे।
"अच्छा चल ,आज से तू मेरे साथ रहना । मेरे साथ रहने में कोई दिक्कत तो नहीं है ना???"
ठाकुर साहब उसे समझा बुझाकर अपने कमरे में ले गए। बात करते करते  कब भोर हो गई पता ही नहीं चला। मन में आशंका भी थी कि कहीं आँख लग गई तो मँगरू कुछ ऐसा वैसा न कर बैठे।  

ठाकुर साहब ने  अपने हाथों से चाय बनाकर मँगरू को भी पिलाई। और इधर उधर की बातें करके उसे उलझाए रखने का प्रयास करते रहे।

मँगरू अब भी मायूस -सा ही बैठा था। उसके भीतर एक उथल -पुथल मची हुई थी। ऐसी स्थिति में उसे एक क्षण भी अकेला छोड़ना उचित नहीं था। 

सत्रह साल का हट्टा कट्टा नौजवान मँगरू चौथी फेल था।पढ़ाई- लिखाई में उसका मन कभी लगा ही नहीं इसलिए उसने आगे की पढ़ाई ही नहीं की। बारह साल की कम आयु में उसके माँ बाप शादी करके उसके लिए दुल्हन भी ले आए थे। मँगरू के पिता  खेतारु ने आजीवन लोगों के खेतों में मजूरी करके किसी तरह से अपनी चार लड़कियों को पाला पोसा ।अब सब ब्याहने लायक भी हो गईं थीं। मँगरू के ब्याह में मिले दान- दहेज से बड़ी बेटी का तो ब्याह तो किसी तरह निबट गया। अब कोई दूसरा बेटा भी तो नहीं कि उसके दहेज से अगली लड़की का लगन निबटा सके। उसके  लिए अब तीन - तीन लड़कियों का बोझ  संभालना मुश्किल हो रहा था। मँझली भी बारह वर्ष की होने को आई थी। खेतारु ने एक जगह बात भी चलाई लेकिन लड़के वाले मोटर साइकिल पर अड़ गए । मँगरू  अपना पूरा दिन दोस्तों के साथ आवारागर्दी करने में बिता देता था। उसे अपने बाप की तरह दूसरे के खेतों में नहीं खटना था। कुछ बड़ा करना था।परंतु क्या, उसे पता नहीं था।
खेतारु और  माई  ने कितनी बार समझाया कि खेती में मजूरी नहीं करनी, तो कौनो नौकरी -धंधा ही पकड़ ले।एक अच्छी नौकरी के लिए मँगरू ने भी पिछले चार सालों में बहुत हाथ- पैर मारे पर चौथी फेल को नौकरी देगा कौन।  रोज माँ बाप के ताने -झगड़े सुन- सुनकर उसके कान पक चुके थे। उधर लड़के के घरवाले मोटरसाइकिल के लिए लगातार खेतारु पर दबाव बना रहे थे । इसलिए इसी हताशा में  मंगरु  अपने आप को समाप्त कर लेने जैसा कायरता भरा कदम उठाने जा रहा था।

 "मँगरू चलो तुम्हें कुछ दिखाता हूँ..."
  ठाकुर साहब उसे अपने तालाब की ओर ले गए ।
"यह तालाब देख रहे हो मँगरू ... मैं इसमें मछली पालन करना चाहता हूँ पर मुझे कोई होनहार लड़का नहीं मिल रहा है...तुमसे पूछना चाहता हूँ...
क्या तुम मेरे लिए और अपने लिए, यह काम करोगे...?? इस तालाब की एक चौथाई मछली तुम्हारी...."
मंगरु की तो जैसे बरसों से माँगी मुराद आज पूरी हो रही थी। वह ठाकुर साहब के चरणों में गिर पड़ा और उसकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली ।

"ठाकुर साहब आप नहीं जानते कि आपने मुझपर कितना बड़ा उपकार किया है। मैं जी जान लगा दूँगा। आप बस हुक्म दीजिये मुझे करना क्या होगा...??? "
ठाकुर साहब ने उसे अपने पैरों से उठाया और उसके  गमछे से उसके आँसू पोछते हुए  बोले, "चलो ,मैं तुम्हें कुछ रुपए देता हूँ ..तुम तुरंत जाकर अच्छी प्रजाति की मछलियों के बीज ले आओ।और हाँ जाते- जाते ट्यूबवेल की मोटर चला देना ताकि तालाब लबालब भर जाए।" कहते -कहते ठाकुर साहब ने अपने बटुए से निकाल कर कुछ रकम उसे थमा दी।

 "जी ठाकुर साहब...जैसा आप कहें... मैं बस यूँ गया और यूँ आया।"  रुपयों को देखकर मंगरु की आँखों में चमक बढ़ गई।
वह बाजार के लिए पैदल ही निकलने को उद्यत हुआ तो ठाकुर साहब ने उसे टोका,"अरे मँगरू, पैदल जाएगा तो लौटने में दोपहर हो जाएगी। जा वहाँ से मेरी साइकिल ले ले। "
"जी ठाकुर साहब ...",- मँगरू की खुशी आज सातवें आसमान पर थी।

यहाँ पूरे गाँव में हल्ला हो गया था कि मँगरू रात भर से लापता है । सूरज आसमान में चढ़ आया है और वह अभी तक घर नहीं लौटा। कुछ अनहोनी के डर से परिजनों का रो -रोकर बुरा हाल हो गया था। खेतारु ने उसे पूरे गांव में ढूँढ लिया पर उसका कहीं अता -पता नहीं था।
अब बस ठाकुर साहब का घर ही बाकी रह गया था जहाँ उसके होने की उम्मीद बिलकुल भी नहीं थी। फिर भी अनायास उसके कदम ठाकुर साहब के मकान की ओर बढ़ गए ।
 "ठाकुर साहब...  ठाकुर साहब..."
खेतारु ने बाहर से ही आवाज लगाई।
  
खेतारु की आवाज़ सुनकर ठाकुर साहब दरवाजा खोलकर बाहर आए,"अरे खेतारु, आओ ..आओ.. किसी काम से मँगरू को मैंने बाजार भेजा है..बस वो आता ही होगा। मुझे पता है तुम परेशान हो उसको लेकर।  वो रात भर मेरे साथ ही था । थोड़ा परेशान था तो मैं बस उसे समझा रहा था । तुम चिंता मत करना अब सब ठीक है।"
ठाकुर साहब बोल ही रहे थे कि उनकी नजर सड़क पर पड़ी। वो देखो उधर, मँगरू आ भी गया। 
 मँगरू को देखकर खेतारु की जान में जान आ गई। माथा पीट पीट कर वह वहीं जमीन पर बैठ गया।
 "अरे ठाकुर साहब... का बताई रात भर घर में केहू नहीं सोवा... एकरे चिंता में सबकर हालत खराब होइ गई है..और ई है कि बाजार घूम रहा है।"

"बाबू ...हम बाजार नहीं घूमत रहे...काम से गए रहे बाबू.... ठाकुर साहब कउनो देवता से कम नाही हैं बाबू .... ई हमके नोकरी पर रखें हैं। आज से सब  दुख कटी जाइ बाबू... ठाकुर साहब के गोड़े गिरा बाबू.... नहीं त आज का नहीं हो गया होता..."
 खेतारु भौचक्का हो कभी ठाकुर साहब को देखता तो कभी मंगरु को। 
नौकरी की बात सुनते ही वह तुरंत उनके पावों में गिर पड़ा।  
ठाकुर साहब ने झुककर दोनों हाथों से  थामकर उसे  उठाया,"अरे खेतारु  यह क्या कर रहे हो, अरे, इसमें मेरा भी तो स्वार्थ है न.. नहीं समझे... मैं बताता हूँ... देखो.. मुझे भी तो अब नया बिज़नेस शुरू करना था न ...सो इसे नौकरी मिल गई और मुझे  काम संभालने के लिए आदमी...तो हुआ न एक पंथ दो काज।"

"ठाकुर साहब आप धन्य हैं...उपकार कइके भी कउनो घमंड नहीं... आज से हम तोहार गुलाम होई गए..."खेतारु ने भावातिरेक में अपनी कृतज्ञता व्यक्त की।

"अरे खेतारु ,हमका कोई गुलाम नहीं चाहिए.... मँगरू ले जा अपने बाबू को घर ...देख नहीं रहा उनका रो -रोकर बुरा हाल हुआ है। जा अब खाना पीना खाकर दोपहर तक आ जाना तालाब पर।" 
 ये थे ठाकुर कामता प्रसाद सिंह। जौनपुर जिले के एक छोटे से गाँव के अकेले ठाकुर घराने के मँझले पुत्र।

 ठकुरान न होने के नाते उनका घर गाँव में सबसे अलग था । उनके घर के सामने बड़ा- सा द्वार, सौ कदम की दूरी पर एक ओर आम का बगीचा तो दूसरी ओर बड़ा- सा तालाब ...
उनका घर या कह लीजिये एक बड़ा -सा पंद्रह कमरों का पक्का मकान, जो दो किलोमीटर दूर से ही नजर आता था। मुम्बई शहर में जमा जमाया अपना कारोबार था। उन्हें ईश्वर की ओर से एक पुत्ररत्न और सात कन्या रत्नों की प्राप्ति हुई थी। सभी की पढ़ाई- लिखाई शादी ब्याह कर लेने के बाद ठाकुर साहब अपने कारोबार को अपने पुत्र को सौंप कर अब अधिकांश समय गाँव में ही बिताते थे। वे अक्सर कहा करते कि अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर मैं अपना बाकी का जीवन अपनी जन्मभूमि पर ही बिताऊँगा। उन्हें अपनी जमीन से बड़ा लगाव था।

 ठाकुर साहब का बचपन बड़ी गरीबी में गुजरा था। उनके पिता ने अपने बड़े बेटे की पढ़ाई और लड़की की शादी के खर्चों को सम्हालने के लिए अपनी सारी जमीन रेहन रख दी थी। जिसे एक- एक करके बाद में ठाकुर साहब ने छुड़वा लिया । अपने छोटे भाई को इंजीनियर बनाया। उनके बच्चों की शादी का खर्च भी उन्होंने  ही वहन किया। अपना पक्का मकान बनवाया।तालाब खुदवाया।
ठाकुर साहब गाँव में होने वाले प्रत्येक सांस्कृतिक कार्यक्रम में बढ़चढ़कर भागीदारी निभाते। सबसे ज्यादा चंदा उन्हीं के घर से जाता था। वे जब भी शहर से  गांव आते न जाने  कैसे लोगों को उनके आने की खबर लग जाती और दो चार लोग उन्हें लेने स्टेशन पहुँच जाते।

ठाकुर कामता प्रसाद सिंह जीवनपर्यंत दूसरों के लिए ही जिए। कोई आर्थिक जरूरत आ पड़ने पर जब कोई और उपाय न सूझता तो लोगों को ठाकुर साहब याद आते और वे शहर से ही रुपया मनीऑर्डर कर देते।अपने जीवन में उन्होंने न जाने कितनों का भला किया।शायद उन्हें भी इसका अंदाजा नहीं था। वे दिया हुआ कर्ज कभी वापस नहीं माँगते थे परंतु जो सक्षम होता उससे वे अपने रूपयों का तकादा जरूर करते ताकि लोगों को मुफ्त की आदत न पड़ जाए। शहर में सूट बूट में रहने वाले ठाकुर साहब जब गाँव आते तो शर्ट - पैंट के साथ गर्दन में गमछा भी लटका लेते ताकि उनसे बात करने में किसी को कोई असहजता न महसूस हो। आखिर कपड़े भी अमीरी - गरीबी का फर्क करते ही हैं। आसपास के गाँव के कई लोग उनके कर्ज तले दबे थे। पर उन्होंने कभी किसी पर अपनी धौंस नहीं जमाई। 

 जब तक ठाकुर साहब गाँव में रहते और किसी के घर में कोई झगड़ा या घरेलू कलह होती तो पंचायत नहीं ठाकुर साहब दिखते। लोग अपना अपना पक्ष उनके सामने रखते। उनका निर्णय पंचों को भी मान्य होता।उसके बाद किसी और बहस की गुंजाइश ही न बचती।
ठाकुर साहब ने अपने जीवन में रुपए पैसे ही नहीं बल्कि खूब सम्मान भी कमाया।
वे तो अब नहीं रहे परंतु लोग उन्हें इतना प्यार करते थे कि उनकी मृत्यु पर उनके अंतिम संस्कार के लिए दस- दस बसें भरकर बनारस के घाट पर पहुँची थीं। पूरा गाँव महीनों विलाप करता रहा, "ठाकुर साहब आपने पूरे गाँव का दीया बुझा दिया। आप हमें अकेला छोड़कर कहाँ चले गए। हमें अनाथ कर दिया आपने।"


12 टिप्‍पणियां:

  1. ठाकुर साहब जैसे उदार, सूझ बूझ, बुद्धिमान व्यक्तित्व का कहानी के रूप में चित्रण पाठकों को अवश्य दिशा प्रदान करे, इन्हीं शुभ कामनाओं के साथ बधाईयाँ l

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    1. कहानी के भावों और उसके मर्म को समझकर गहनता से विश्लेषण करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया 🙏.

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  2. मानवीय करूणा और बन्धुता का भाव लिए बहुत सुन्दर कहानी ।

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    1. उत्साहवर्धन करती टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया 🙏 🙏 🙏

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  3. सादर नमस्कार,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार
    (12-06-2020) को
    "सँभल सँभल के’ बहुत पाँव धर रहा हूँ मैं" (चर्चा अंक-3730)
    पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है ।

    "मीना भारद्वाज"

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  4. ठाकुर साहब जैसे लोग विरले ही होते हैं जो अपना जीवन दूसरों की भलाई करने में ही बिता दें। बेहतरीन कहानी सखी

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद सखी. आपकी प्रतिक्रिया मन को आल्हादित कर गई

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  5. अच्छा चित्रण कहानी के सारे चरित्र उभर कर आ रहे हे

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  6. ऐसे लोग अब दुर्सभ हैं बढ़िया चित्रण

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  7. फान्ट को थोड़ा बड़ा करके लिखें तो ज्यादा अच्छा लगेगा

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    1. जी धन्‍यवाद.. सुझाव पर ध्यान दूँगी आदरणीया 🙏 स्वागत है आपका

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