गुरुवार, 21 जनवरी 2021

लघुकथा - गुमान

 


नियम था उसके गाँव में अपनी औरतों को पीटने का। विवाहोपरांत जब वह अपनी पत्नी के साथ गाँव लौटा तो उसने भी अपनी पत्नी को खूब पीटा ताकि लोग उसे ' मेहरा' न कहने लगे और सीना तान कर लोगों के सामने व‍ह भी अपनी मर्दानगी का दिखावा कर सके ।

सफ़लता का गुमान लिए अब व‍ह सारे गाँव में घूमता है।

सोमवार, 9 नवंबर 2020

चुंबक

  

जग्गी बैसाखी के सहारे बड़ी खुशी - खुशी लंबे डग भरता हुआ सुखिया के पास पहुँचा। 

"देख सुखिया, ये देख आज मेरे पास कितने पैसे है... पाँच सौ, छह सौ, सात सौ, आठ सौ और ये.. नब्बे दो बानवे..अऽऽरे... केवल आठ रुपये से रह गया..." 

 जग्गी भीख में मिले हुए नोटों को खुश होकर बड़ी तल्लीनता से गिन रहा था परंतु आठ रुपए कम होने का मलाल भी हो रहा था उसे। 

 "कोई बात नहीं, कल थोड़ा जल्दी जाऊँगा सिग्नल पर... ज्यादा कमाने के लिए बिजनेस पर कल से ज्यादा ध्यान लगाऊँगा.. तू सुन रहा है न सुखिया??.. "

अपनी आज की कमाई से अपना ध्यान हटाते हुए उसने सुखिया की ओर देखा, 

"अरे सुखिया, तू इतना उदास हो कर क्यों बैठा है.. क्या हुआ???.. तुझे खुशी नहीं हुई क्या मेरे पैसे देखकर??? " जग्गी ने सुखिया से पूछा।


सुखिया माथे पर हाथ रखकर यूँ बैठा था जैसे कोई मातम मना रहा हो! 


जग्गी के पूछने पर तुनक कर बोला, " तू चुप कर,,,,, आ गया है फिर से मेरे ज़ख्मों पर नमक छिड़कने,,,,,, तू आज भी ज्यादा पैसे कमाकर आया है,,,, और मैं,, पूरे दिन में ये,,,, ये उनसठ रुपये,," रुपयों को हाथ मसलते हुए उसने गुस्से में फिर से उन्हें अपनी बड़ी सी खाली कटोरी में फेंक दिया।

अरे,अरे, अरे,,, इतना गुस्सा क्यों करता है, चल आज तुझे मैं पार्टी देता हूँ,, ये देखऽऽऽ मेरी चमेलीऽऽऽ।" कहते हुए उसने अपनी जेब से देशी शराब की एक बड़ी- सी बोतल निकाल कर उसे चूम लिया । 


" और ये लेऽऽऽ साथ में चखना भी है ,,, देशी शराब और चखना देखते ही सुखिया की आँखों में चमक आ गई। 

कुछ ही देर में दोनों दोस्त नशे में धुत्त हो चुके थे।दोनों की जुबानें अब लड़खड़ाने लगी थीं।

 

सुखिया बोला," जग्गी तू बड़ा नसीबवान है रे .... इतने पैसे कमाता है.. ऊपरवाला मेरे से नाराज है शायद.. एक तो भिखारी बनाया.. ऊपर से भीख भी नहीं दिलाता है...। " सुखिया ऊपर आसमान की ओर ताकते हुए भगवान का नाम लेकर उन्हें कोसने लगा। 


"शऽऽऽऽऽ... सुखियाऽऽऽ,,, तुझे कमाने नहीं आता,,,, तू ऊपर वाले को क्या कोसता है.... आऽऽऽ मैं तुझे बताता हूँ कैसे कमाते हैं पैसे.." नशे में झूलते हुए जग्गी ने अपना हाथ सुखिया के गले में डाल दिया और बोला," राज़ की बात है तू बोल किसी को बताएगा तो नहीं!!!!" 


 "नहींऽऽऽ बताऊँगा। " सुखिया बोला। 


"तो खा अपनी माँ की कसमऽऽऽ,,, तू उस कु##ऽऽऽऽ, कमी#ऽऽऽ अब्दुल को भी नहीं बोलेगा??" 


" नहीं, अब्दुल को भी नहीं बोलूँगा .... माँ कसम! "


" सुखिया तू मेरा बहुत अच्छा दोस्त इसलिए तुझे बता रहा हूँ.... देख तू किसी को बोलना नहीं हाँऽऽऽ...। "

 जग्गी सुखिया को बार- बार कसम दिलाता और सुखिया भी हर बार कसम खाकर उसे किसी को न बताने का वायदा करता। सुखिया को क्रोध भी आ रहा था परंतु व‍ह ज्यादा कमाई का नुस्खा मिलने की उम्मीद में कुछ बोल नहीं पा रहा था। यह सिलसिला काफी देर तक चलता रहा।

 सुखियाऽऽऽ मेरे दोस्त तू मेरा सच्चा दोस्त है इसलिए तुझे बता रहा हूँ, सुन.. तू न कल से अपनी कटोरी में सौ रुपये के नोट, पचास रुपये के नोट, बीस रुपये के नोट पहले से ही रखना.... फिर भीख माँगना... देखनाऽऽऽ तेरा बिजनेस चल निकलेगऽघऽऽ... तुझे ज्यादा पैसे मिलेंगे...।" 


" ए जग्गी कुछ भी फेंक मत, मेरी कटोरी में इतने बड़े - बड़े नोट देखकर कोई मुझे भीख ही नहीं देगा.. सोचेगा इसके पास तो पहले से ही पेट भरने के पैसे हैं।" 


 सुखियाऽऽऽऽ नहीं, तू मेरी बात मानऽऽ... कल से नोट ही रखना अपनी कटोरी मेंऽऽ... तुझे पता है बड़े - बड़े सेठ लोग क्या बोलते हैं!!!! 


" क्या बोलते हैं??? " सुखिया ने जिज्ञासावश पूछा। 


" अरेऽऽ उन लोगों से ही तो मैं सुना कि पैसा पैसे को खींचता है...उसमें ऐसा चुंबक लगा होता है जो किसी को भी दिखता नहीं और सब उसकी ओर खिंचे चले आते हैं ..... तभी से मैंने भी सोच लिया कि मैं ऐसा ही करूँगा और देखऽऽ तभी से मेरे को भी ज्यादा भीख मिलती है... मेरा बिजनेस बढ़ गया है... है कि नहीं । " 


 सुखिया को अब जग्गी की बात पर यकीन होने लगा था.. उसे भी अब अपनी आँखों के सामने ढेर सारे रुपयों से भरी कटोरी नजर आने लगी थी... 

  

" हाँ रेऽऽ जग्गी लगता है तू सही बोल रहा है कल से मैं भी ऐसा ही करूँगा... "सुखिया खुश हो आशान्वित भाव से बोला। 


 "पर तूने मुझे वादा किया है तू किसी को बोलेगा नहीं...." 

हाँ बाबा, नहीं बोलूँगा किसी को.... अब चल, ठेले पर चलकर मस्त भुर्जी - पाव खाते हैं...." और दोनों लड़खड़ाते कदमों से ठेले की ओर बढ़ जाते हैं। 





बुधवार, 28 अक्टूबर 2020

मुझसे दोस्ती करोगी ???

 "सर आपने मुझे बुलाया?" अजुनी ने अपने बॉस मिस्टर चड्ढा के कैबिन में प्रवेश करते हुए उनसे पूछा।

"अ.. हाँ.. आओ... और बताओ कैसा लग रहा है तुम्हें इस दफ़्तर में, आज पूरे डेढ़ महीने हो गए! मैंने अक्सर तुम्हें चुप- चुप ही देखा है... तुम्हें किसी प्रकार की कोई परेशानी तो नहीं है न यहाँ ..." बॉस ने अजुनी को कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा ।


"जी सर, अच्छा लग रहा है.. और परेशानी कैसी सर... कोई परेशानी नहीं... सब ठीक है.." अजुनी ने हामी भरते हुए उत्तर दिया।


" बढ़िया.... अच्छा ये बताओऽऽऽ.... क्या तुमऽऽऽ... क्या तुम मेरी दोस्त बनोगी?" कहते हुए मिस्टर चड्ढा अपनी कुर्सी से उठकर अजुनी के बेहद करीब आ गए।


"जी... ये आप क्या कह रहे हैं सर.. दोस्त!!!! ... मैं आपका मतलब नहीं समझी सर ।" अजुनी ने सकपकाते हुए पूछा । अजुनी ने उनके इरादे को भाँप लिया । उसे उम्मीद नहीं थी कि उसकी दादाजी की उम्र का व्यक्ति और ऐसी हरकत!!


व‍ह झटके से अपनी कुर्सी से उठ खड़ी हुई, " सर, क्या व‍ह भी आपकी दोस्त है?" न जाने क्या सोचते हुए उसने कैबिन के बाहर अपने कार्य में व्यस्त अपनी सहकर्मी दिव्या की ओर इशारा करते हुए मिस्टर चड्ढा से पूछा।


मिस्टर चड्ढा ने सिर घुमाकर दिव्या की ओर देखा और मुस्कराते हुए हाँ में सिर हिला दिया। अजुनी अब अपने बॉस के चरित्र को भली- भाँति समझ चुकी थी। इतने बड़े दफ्तर में दिव्या और अजुनी के इतर कोई और महिला कर्मचारी नहीं थी इसलिए बात को और आगे बढ़ाना उसे ठीक न लगा। 


 उसने कहा ,"सर आप तो जानते ही हैं कि 

मैं ज्यादा बातें नहीं करती.. तो क्या मैं आपको लिखित में अपना जवाब दे सकती हूँ? "


मिस्टर चड्ढा को अपनी दाल गलती नजर आई... उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि अजुनी इतनी आसानी से मान जाएगी। उस समय उनकी आँखों में हवस की भूख साफ़- साफ़ दिखाई दे रही थी।


" लिखित में... ठीक है.. जैसी तुम्हारी मर्ज़ी... मैं तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहा हूँ..." कहते हुए मिस्टर चड्ढा मगन होकर कुछ गुनगुनाने लगे। 


" जी सर.. मैं बस अभी आती हूँ। " - यह कह कर तेज़ कदमों से व‍ह कैबिन से बाहर निकल गई।


वह समझ नहीं पा रही थी कि मिस्टर चड्ढा दिव्या को अपनी दोस्त बता रहे थे तो व‍ह उससे इस विषय में बात करें या न करें... ख़ैर उसने दिव्या से बात करने का विचार त्याग दिया। 


कुछ देर बाद हाथ में एक पत्र लिए हुए ठंडे दिमाग से व‍ह कैबिन में घुसी, "सर... यह रहा मेरा उत्तर...मेरा त्यागपत्र... मुझे आप जैसे किसी दोस्त की जरूरत नहीं है...आप जैसे पुरुषों की वजह से स्त्रियाँ कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं ...क्या आप अपनी बेटी याऽऽ.. या अपनी पोती से भी ऐसी ही बातें करते हैं... अरे और कुछ नहीं तो कम से कम अपनी उम्र का ख्याल तो करना चाहिए था...." बोलते- बोलते अजुनी की आवाज़ तेज हो गई थी ... दफ्तर के सभी कर्मचारी धीरे - धीरे अब कैबिन के भीतर प्रवेश कर चुके थे। 


" यह सब गलत है... तुम मुझपर झूठा आरोप मढ़ रही हो अजुनी... तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो.. " सबको यूँ कैबिन के भीतर देखकर चड्ढा ने अपनी सफ़ाई देनी चाही परंतु उसकी झुकी आँखें सत्य की गवाही दे रही थीं। इसके आगे व‍ह कुछ और बोल न सका। 


" शुक्र कीजिए सर... आपकी उम्र का लिहाज़ करते हुए पुलिस में आपकी शिकायत दर्ज़ नहीं कर रही हूँ...और हाँ... यह रहा मेरे आधे महीने का वेतन... अब मैं जा रही हूँ यहाँ से । " अजुनी ने चड्ढा की मेज़ की दराज़ से कुछ रुपए निकाले और दरवाज़े की ओर बढ़ गई। 

सब मौन थे किंतु पूरा दफ़्तर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था। 












शनिवार, 18 जुलाई 2020

चेतावनी



"अरे यह क्या कर रही हो जरा देखूँ तो" पास ही बैठे नीतीश ने अपने मन में उभरी किसी शंकावश प्रतिमा के हाथ से सायास उसका फोन छीन लिया और प्रतिमा ने जो कुछ अपने भाई को पोस्ट किया था उसे पढ़ते ही फ़ोन से तत्क्षण उसे डिलीट कर दिया। 

"प्रतिमा बस भी करो ,क्या अब अपने बड़े भाई का भी घर बर्बाद करके ही दम लोगी???"

"क्या कह रहे हो नीतीश ! तुमने देखा उस सलोनी ने लिखा क्या है!"

"शर्म करो प्रतिमा वे तुमसे बड़ी हैं। तुम्हारे बड़े भाई की पत्नी हैं। क्या तुम्हारे मम्मी और पापा ने तुम्हें अपने बड़ों का सम्मान करना भी नहीं सिखाया। अपने छोटे भाई की जिंदगी में आग लगाकर उनका विवाह- विच्छेद करवाकर भी तुम्हें अब तक शांति नहीं मिली कि अब बड़े  भाई की जिंदगी में भी विष घोल देना चाहती हो... तुम्हारी वजह से ही तुम्हारे माँ बाप ने उन्हें घर से अलग कर दिया और अब वो लोग शांति से रह रहे हैं तो कम से कम अब तो उनका पीछा छोड़ दो।"

"तो क्या उन्होंने जो कुछ मेरे दोस्तों से मेरे और मम्मी- पापा के बारे में कहा ,हमारी बदनामी की..वो सब ठीक है।"

"अरे वाह, तुम और तुम्हारे मम्मी पापा  उनके बारे में उल्टा सीधा बोल -बोलकर 
दुनिया भर में जो ढोल पीटते रहते हैं वो सही है न....प्रतिमा, तुम लोग कितने दोगले हो न ,अपने लिए अलग विधान और उनके लिए अलग। मात्र इसलिए कि वो बहू हैं ,उन्हें अपने मन से साँस लेने की इजाजत भी नहीं है न!!! "

"सलोनी से तुम्हारी कोई बात हुई क्या  नीतीश ...तुम आज उसकी बोली क्यों बोल रहे हो.. लगता है उसने तुम्हें भी कोई पट्टी पढ़ा दी है।" प्रतिमा ने नीतीश पर आरोप मढ़ते हुए कहा।

"अब इससे अधिक कि मैं तुमसे उम्मीद भी नहीं कर सकता प्रतिमा... मैं जानता हूँ कि तुम्हारी सोच कितनी निकृष्ट है।याद रखो तुम्हारी वजह से एक दिन तुम्हारे मम्मी -पापा एकदम अकेले पड़ जाएँगे। उनके बुढ़ापे का सहारा तुमने स्वयं ही उनसे छीन लिया है। वैसे भी गलती अकेली तुम्हारी नहीं है ।सबको उनके कर्मों का फल देर सवेर मिलता ही है सो उन्हें भी मिलेगा। अरे, तुम्हें बुद्धि नहीं थी.. कम से कम उन्होंने तो तुम्हें समझाया होता।इतना वयोवृद्ध होकर उन्हें अभी तक समझ नहीं आयी है यह बात। तुम लोगों की हरकतों के कारण ही तो अब भैया भाभी रक्षाबंधन पर भी तुमसे मिलने नहीं आते.. सोचो तुमने क्या खोया और क्या पाया है।"

 " तो क्या सारा दोष हमारा ही है नीतीश, उनकी कोई गलती नहीं..  और मैं तुम्हारी पत्नी हूँ मेरा साथ देने की जगह तुम उनके गुण गा रहे हो। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है....और वैसे भी मैं कुछ बोल नहीं रही हूँ  इसका मतलब ये नहीं है कि मुझे बोलना नहीं आता नीतीश ।"

"हुँह...बोलना..यही तो तुम्हें आता है... कैसे किसको मूर्ख बनाना है ये तुम लोगों से बेहतर कौन जानता है... आज तुम्हारी वजह से ही मेरे दोनों भाई भी मुझसे भी दूर हो गए हैं। ससुराल को नहीं तो कम से कम पीहर को तो छोड़ दिया होता। माँ तुम्हारी सुंदरता पर लोभित न होतीं तो आज मुझे ये दिन नहीं देखना पड़ता। तुम बाहर से जितनी सुंदर हो प्रतिमा भीतर से उतनी ही कुरूप। डायन भी सात घर छोड़ देती है, तुम अपने मायके को ही छोड़ दो।भीख माँगता हूँ तुमसे प्रतिमा ,कम से कम अब तो सुधर जाओ। एक परिवार को तो सुखी रहने दो।"

"वरना ..."

"वरना मुझे मजबूरन यह कहना पड़ेगा कि अब मेरा घर भी टूट जाएगा। अब तो माँ भी नहीं रहीं जो मुझे रोक सकें। तुम्हारे मम्मी- पापा का लिहाज भी अब और नहीं करूँगा। अरे, जो अपने बेटों के नहीं हुए, वे मेरे क्या होंगे। मेरे संसार में उन्होंने बहुत दखलंदाजी कर ली । बस ,अब और नहीं। अब फैसला तुम्हारे हाथ में है। मायके में दखलंदाजी या पति के साथ सुखी संसार।इसका निर्णय अब तुम पर छोड़ता हूँ।"

ठक!!!..

नीतीश सख़्त चेतावनी देकर क्रोध में घर से बाहर निकल गया और प्रतिमा गहन विचारों में खो गई।




 

रविवार, 21 जून 2020

नीलू...


नीलू पूरे छः महीने की हो गई थी आज। इसलिए बंटी ने माँ से केक बनवाकर  अपनी कक्षा के सभी बच्चों में बाँटकर धूमधाम से उसके छःमासे जन्मदिन की खुशी मनाई ।
बंटी जब नीलू को घर लाया था तो व‍ह मात्र दस- बारह दिन की ही थी। छोटी - सी, बस एक हाथ में समा जानेवाली। उसके उन रूई के फाहे से अधिक  मुलायम काले घने बालों पर हाथ फेरते ही हाथ फिसलने लगता था। उसकी निर्मल काली गोल- गोल आँखों की मासूमियत हर किसी को अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर लेतीं। 
"माँ, आज से इसका नाम नीलू।"-बंटी ने स्नेह से उसके बालों पर हाथ फेरा।


नीलू!! भला यह क्या नाम है हुआ एक पिल्ले का???


"माँ, इसे पिल्ला मत कहो,इसे नीलू कहो नीलू। यह  मुझे अवस्थी अंकल के बग़ल वाली नीली कोठी के पास मिली है  इसलिए मैंने इसका नाम नीलू  रखा है। अच्छा है न।"


"अच्छा बाबा ...नीलू...  बस !!सचमुच बहुत सुंदर नाम है ...नीलू...।"
  
बंटी ने बड़े प्यार से उसका नाम रखा था नीलू ।नीलू की देखरेख की सारी जिम्मेदारी दस वर्षीय बंटी ने स्वयं अपने कंधों पर ले ली थी ।प्रतिदिन सुबह- शाम उसे घुमाने ले जाना ; उसका खाना- पीना; उसके साथ खेलना... यह सब उसकी दिनचर्या में शामिल हो गया था।

नीलू की मासूम हरकतें सबको बड़ी प्यारी लगती थीं।परिवार के किसी खास सदस्य की तरह कुछ ही दिनों में वह सबकी दुलारी हो गई थी । उसके  कारण अब पहले के मुकाबले घर में चहल- पहल भी ज्यादा बढ़ गई थी।परंतु दादी को नीलू कभी पसंद नहीं आई। उन्हें कुत्तों से एक अजीब- सी चिढ़ थी।इसलिए वे उसे घर में घुसने न देतीं।

बंटी घर के बरामदे में ही उसका खाना पानी दे आता।नीलू गलती से भी कभी यदि दादी को छू लेती या चाट लेती तो दादी की भनभनाहट शुरू हो जाती।

"हरे राम..  राम..राम.. इस पिल्ली ने तो मुझे भ्रष्ट कर दिया.. अब दोबारा नहाना पड़ेगा।"
और जब तक वे दोबारा स्नान न कर लेती तब तक उन्हें चैन न पड़ता।

गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हो गई थीं।बंटी की चचेरी बुआ की शादी तय हो गई। शादी में जाने के बारे में सोचकर ही बंटी बड़ा ख़ुश था।वह एक- एक दिन गिन रहा था। गाँव जाने की सारी तैयारियाँ भी पूरी हो चुकी थी। पंद्रह दिन में लौट आने की योजना बनाकर बंटी के पिता सुभाष अग्रवाल जी ने रिटर्न टिकट भी निकाल लिया। परंतु सबके मस्तिष्क की सूई बार -बार एक ही बिंदु पर आकर अटक रही थी कि नीलू का क्या करेंगे । उसे कहाँ छोड़ेंगे।उसे ट्रेन में अपने साथ भी तो नहीं ले जा सकते। 


आखिर गर्मी की छुट्टियों का सभी को बेसब्री से इंतजार रहता है।सो आस -पड़ोस के लोग भी अपनी अपनी छुट्टियाँ मनाने के लिए कहीं न कहीं चले गए हैं।पड़ोस में अब ऐसा कोई भी नहीं था कि नीलू को कुछ दिनों के लिए उसके हवाले किया जा सके।

 शादी में शामिल नहीं हुए तो लोग- बाग दुनिया भर की बातें बनाएँगे ।इसलिए शादी में न जाने का प्रश्न ही नहीं उठता । 

 बंटी के समक्ष पूरी वस्तुस्थिति रखी गई तो बंटी भी उदास हो गया और नीलू को भी अपने साथ ले जाने की ज़िद करने लगा।परन्तु सुभाष जी ने  चार- पाँच दिन में लौट आने का भरोसा दिलाते हुए किसी तरह से उसे मना लिया।


वह दिन भी आ गया जब उन्हें गाँव के लिए निकलना था।नीलू के लिए खाने -पीने का पूरा इंतजाम करके अपरिहार्य स्थिति में सब टैक्सी से रवाना हुए।

बरामदे के बाहरी द्वार पर ताला औऱ कुंडी न लगाकर खुला छोड़ दिया गया ताकि वह अपनी आदत औऱ  प्राकृतिक आवश्यकता के अनुसार सुबह- शाम घूमने निकल सके। 

गाड़ी में बैठ तो गए किंतु सभी को नीलू की ही चिंता घेरे थी विशेष तौर से बंटी को।परंतु मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है और मजबूरी वश उसे कई अवांछित कार्य करने पड़ते हैं। घर से निकलते वक़्त नीलू का बार -बार भौंकना सब को परेशान कर रहा था। मानो वह सबसे शिकायत कर रही हो कि सभी उसे अकेला छोड़कर कहाँ जा रहे हैं।आखिर एक मूक प्राणी अपने मन की बात को बताए भी तो कैसे ...यही सोचकर सबके मन में एक अपराधबोध उत्पन्न हो रहा था।

गाँव पहुँच कर सब विवाह के रीति रिवाजों में व्यस्त हो गए। फिर भी रह-रहकर सबका ध्यान नीलू की ओर चला ही जाता था।शादी की सारी औपचारिकताओं को निभाकर एक पखवाड़े बाद सब लौट आए।

  टैक्सी घर के सामने रुकी ही थी कि नीलू से मिलने की आस में बंटी सीधा बरामदे की ओर दौड़ा।परंतु नीलू  बरामदे से नदारद थी।उसे वहाँ न पाकर वह इधर- उधर खोजने लगा।

"नीलू...नीलू....कहाँ हो....नीलू... पापा.. माँ.. नीलू कहीं दिखाई नहीं दे रही... पापा ... देखो न ...नीलू कहीं नहीं दिखाई दे रही।" -बंटी बेचैन हो उठा।

"बंटी ..बेटा... नीलू यहीं कहीं होगी ...तुम चिंता मत करो ....देखो.... उस तरफ देखो..हो सकता है बाहर  गई हो.. आ जाएगी थोड़ी देर में घूम-फिरकर।-" माँ ने बंटी को समझाने का प्रयास किया।

सब अपने कामों में व्यस्त हो गए परंतु बंटी  खिड़की से बाहर अपनी नजरे गड़ाए अनमना - सा सोफ़े पर ही बैठा रहा।उसका मन कहीं नहीं लग रहा था।

सूर्य अस्तांचल पर था।धीरे- धीरे अँधेरा भी गहराता जा रहा था पर नीलू  की अब तक कोई खबर न थी। काफी देर हो चुकी थी।सबकी व्याकुलता भी चरम सीमा पर  थी । इसलिए बंटी और सुभाष जी अपनी आवासीय कॉलोनी के आस -पास की सभी संभावित स्थानों पर उसे तलाशने निकल गए । काफ़ी देर तक खोजने के बाद भी जब नीलू का कुछ पता न चला तो थक हार कर  दोनों वापस लौट आए।
बंटी का मासूम दिल नीलू को देखने के लिए व्यग्र था।नीलू की याद में उस रात बंटी ने एक निवाला भी अपने गले से नीचे नहीं उतारा और रोते -रोते वही  सोफ़े पर ही सो गया।सबने उसे मनाने का भरसक प्रयास किया परंतु सब व्यर्थ । 
 व्यग्रता में जैसे -तैसे रात तो बीत गई पर मन के मलाल के कारण कोई  ढंग से सो न सका।
भोर होते ही प्रतिदिन की भाँति सुभाष जी जब जॉगिंग के लिए पार्क में गए तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। एक आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता उनके चेहरे पर आ गई। फिर  कुछ ही पलों में न जाने क्या सोचकर उनके चेहरे के भाव बदल गए और उनकी आँख से भर -भर आँसू बहने लगे। यह ख़ुशी के आँसू  थे। वह खुशी जो किसी बहुत अपने के मिल जाने पर ही होती है। 

नीलू सुभाष जी के सामने थी।जैसे ही उसकी नजर सुभाष जी पर पड़ी ।तीव्र गति से दौड़ती हुई वह उनके पास आ गई और उन्हें जीभ से चाट -चाटकर वह अपना प्यार जताने लगी।सुभाष जी ने उसके शरीर पर जैसे ही अपना स्नेहसिक्त हाथ फेरा नीलू भौंकने लगी।मानो वह उनसे शिकायत कर रही हो कि उसे छोड़कर सब कहाँ चले गए थे।"

"श्रीवास्तव जी ,मैं बता नहीं सकता कि आपने मुझे आज कितनी ख़ुशी दी है।मैं जिंदगीभर आपका यह उपकार नहीं भूलूँगा।परंतु यह आप के पास कैसे..." दोनों हाथ जोड़कर सुभाष जी ने श्रीवास्तव जी को धन्यवाद देते हुए प्रश्न किया।


" भाईसाहब.. यूँ हाथ जोड़कर आप मुझे शर्मिंदा न करें..बस.. इंसानियत की भावना के नाते ही मैंने यह सब किया।आपके जाने के कुछ दिनों बाद जब मैं  मनीला से लौटा तो  मैंने पाया कि नीलू लगातार भौंके जा रही थी। काफी देर तक जब मुझे कुछ समझ न आया तो मैं आपके घर आ गया ।देखा कि घर पर नीलू के अलावा और कोई भी नहीं था । दरवाजे पर  भी ताला लटक रहा था।  कई दिनों से खाना न मिलने के कारण यह बहुत कमजोर हो गई थी और उदास भी लग रही थी।इसलिए मैं उसे अपने घर ले आया।मुझे नहीं पता था कि आप आ गए हैं ।वरना मैं खुद ही इसे..."


"अरे नहीं.. नहीं .. श्रीवास्तव जी..ऐसा मत कहिए। मैं तो आपका बहुत आभारी हूँ कि मेरी गैरमौजूदगी में आपने इस की इतनी अच्छी तरह देखभाल की। मेरे ऊपर तो आपका कर्ज़ चढ़ गया है।मैं तो इसके मिलने की उम्मीद ही खो चुका था। मैं आपको बता नहीं सकता कि मेरा बंटी इसे देखकर कितना खुश होगा.. अच्छा अब आज्ञा दीजिए।" -हाथ जोड़कर उन्होंने श्रीवास्तव जी से जाने की आज्ञा माँगी ।
और अपनी जॉगिंग भूलकर तीव्र गति से ख़ुशी - ख़ुशी अपने घर की ओर चल दिये। आज उनका परिवार फिर से पूरा हो गया था।

वह पीला बैग

"भाभी यह बैग कितना अच्छा है!! कितने में मिला?" नित्या की कामवाली मंगलाबाई ने सोफे पर पड़े हुए बैग की तरफ लालचाई नजरों से इशार...